विकास की भारतीय संकल्पना
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ(RSS), कोंकण प्रान्तद्वारा आयोजित, बौद्धिक श्रृंखला का प्रथम बौद्धिक, दिनांक सितंबर ०६, २०२० को प्रसारित हुआ। इस बौद्धिक वर्ग में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय कार्यकारणी सदस्य एवं उत्तर क्षेत्र संघचालक माननीय डॉ. बजरंगलालजी गुप्त इनका “विकास(DEVLOPMENT) की भारतीय संकल्पना” इस विषय पर मौलिक मार्गदर्शन मिला।
बौद्धिक वर्ग की शुरुआत में श्री प्रदोष वाकडेजी ने, “निर्माणोके पावन युग में हम चरित्र निर्माण न भूले” यह वैयक्तिक गीत मधुर स्वरोंमे सादर किया। उद्बोधन के शुरुआत में बजरंगलालजी ने पार-तंत्र हिंदुस्तान और स्वतंत्र हिंदुस्तान में क्या फर्क हैं? यह प्रश्न उपस्थित करते हुए कहा की पारतंत्रता और स्वतंत्रता में तंत्र यह शब्द सामान हैं। किसी भी देश, या समाज को कार्यान्वित रखने के लिए जो व्यवस्था या कार्यपद्धति होती हैं, उसी को प्रणाली कहते हैं। जिस तरह शिक्षा के लिए शिक्षा प्रणाली, राजनीति के लिए राजनैतिक प्रणाली होती हैं, ठीक उसी तरह अर्थव्यवस्था के लिए योग्य आर्थिक प्रणाली का होना जरूरी हैं। जब हिंदुस्तान पर अंग्रेजों का राज था तब इन सब प्रणालीयोंको लागू करने का काम अंग्रेजों का था, जो की हम भारतीयों के हित में नहीं था। स्वतंत्रता के बाद इस तंत्र को चलाने की ज़िम्मेदारी देश के लोगों पर आएगी। हम लोगों ने अंग्रेजों के राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक प्रणालिओंकि नक़ल की और इसी कारण हमारी समस्याएँ सुलझने के अलावा, और जटिल हो गई। पूजनीय गोलवलकर गुरूजी, पंडित दीनदयालजी उपाध्याय, दत्तोपंतजी ठेंगड़ी और पूजनीय सुदर्शनजी इन सभी महानुभावोंने बड़े विस्तार के साथ देश के विकास का स्वदेशी रास्ता तलाशा हैं। रवींद्रनाथ ठाकुर कहाँ करते थे की, जिनकी समस्या हैं, उन्होने उस समस्या के जवाब ढूंढने हैं, ठीक उसी तरह भारतीयों की समस्याओंका समाधान भारतीय लोगों की ज़रूरतों के आधार पर करना हैं।
पाश्चिमात्य मूल्यों के अनुसार देश का विकास, देश की GDP पर निर्भर हैं। अगर देश का GDP बढ़ रहा हैं, तो देश आर्थिक उन्नति कर रहा हैं। देश का GDP घट रहा हैं, तो देश आर्थिक अधोगति कर रहा हैं। GDP के आधार पर देश के विकास का मूल्यांकन गलत हैं। देश में एक वित्तीय वर्ष में उत्पन्न किए गए सभी वस्तु और सेवाओं के बाज़ार मूल्य को जोड़ने बाद उस देश का GDP हासिल होता हैं। पाश्चिमात्य जीवनशैली में हर बात के लिए पैसा गिनकर काम किया जाता हैं। पश्चिमी समाज को अपनी सारी ज़रूरतों के लिए बाजार पर निर्भर रहना पड़ता हैं। नवजात शिशुओंके जन्म से लेकर उनका पालन पोषण, उनके संस्कार, उनकी देखरेख, बुज़ुर्गोंकी देखरेख, उनका स्वास्थ इन सभी के लिए पैसे खर्च किये जाते हैं। पर भारत में यह सभी सेवाओं की पूर्तता घरकी महिलाएँ करती हैं। घर के अन्य सभी कामकाज की ज़िम्मेदारी उस घर की स्त्री-शक्ति पर ही आती हैं। और इन सभी किस्म की सेवाओं के लिए उस घरकी महिलाओं को तनख्वा नहीं दी जाती। इसी कारण यह सभी सेवाओं का बाजार मूल्य पश्चिमी देशों के तुलना में नगण्य हैं। १९९६ के मानव विकास अहवाल अनुसार पश्चिमी राष्ट्र स्वीकार करते हैं की, यह विकास “रोज़गार विहीन विकास” हो रहा हैं। ऐसे विकास का वर्णन “निष्ठुर विकास” और “मूक विकास” इन संज्ञाओं से किया गया हैं। विकास के नाम पर देश और समाज के लोगों को उनकी सामाजिक जड़ों से, उनके जीवन मूल्योसे, उनकी संस्कृति और परंपरा से विलग कर देते हैं। यह विकास भविष्यहीन विकास हैं और आनेवाली पढियो के लिए समस्याएँ निर्माण कर देगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रार्थना में विकास की व्याख्या “परं वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रं” की गयी हैं।
केवल भौतिक संपन्नता यह विकास नहीं हैं। भौतिक संपन्नता के कारण कई सारे दोष समाज में उत्पन्न होते हैं। भौतिक संपन्नता आवश्यक हैं, परतुं पर्याप्त नहीं हैं। ”समुत्कर्ष निःश्रेयसस्यैकमुग्रं” यानी राष्ट्र के भौतिक उन्नति के साथ राष्ट्र की आध्यात्मिक उन्नति होना भी बहुत जरूरी हैं। जिन देशों ने केवल भौतिक विकास के मार्ग अवलंबित किए हैं, आज उन देशो का सामाजिक स्वास्थ, आपसी सरोकार, स्नेह, पारिवारिक मूल्य नष्ट हो गए हैं। बजरंगलालजी ने प्रभु श्रीराम का उदाहरण देते हुए कहाँ, रावणकी लंका में भौतिक संपन्नता की कोई कमी नहीं थी। वो तो ‘सोने की लंका’, ऐसी पहचान थी। आज की भाषा में कहे तो विकास दर अधिकतम था। रावण ने तो भगवान कुबेर को बंदी बनाए रखा था, कुबेर का खजाना लंका में आ गया था। इन सब के बावजूद लंका में नैतिकता का क्रमशः पतन होता चला गया। इसीलिए प्रभु श्रीराम ने लंका में बसने का मन नहीं बनाया। लंका को अपने राज्य से नहीं जोड़ा। प्रभु श्रीरामजीने(SHREERAM) अपने भाई लक्ष्मण से कहा “अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते ।जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥” यानि हे लक्ष्मण! सोने की लंका भी मुझे अच्छी नहीं लगती हैं। माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़ कर हैं॥ अयोध्या के रामराज्य के बारे मे वर्णन आता हैं, की “दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहीं काहुहि ब्यापा॥ सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥“ यानि, रामराज्य’ में दैहिक, दैविक और भौतिक ताप किसी को नहीं व्यापते। सब मनुष्य परस्पर प्रेमभाव रखते हुए और वेदों में बताई हुई नीति (मर्यादा) में तत्पर रहकर अपने-अपने धर्म का पालन करते रहे। इसी प्रकार हमारे पूर्वजोंने विकास की व्याख्या केवल भौतिक विकास तक सिमित न रखते हुए, जीवन मे आत्मिक और आध्यात्मिक विकास को महत्वपूर्ण स्थान दिया हैं।
मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थ को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। हमारे पुर्वजोने हमे संपत्ति हासिल करने से मना नहीं किया, परन्तु वह संपत्ति हासिल करने का मार्ग वैध होना चाहिए। यानि मनुष्य को धर्म का आचरण करके संपत्ति का निर्माण और उपभोग लेना चाहिए। धर्म का अर्थ केवल पूजापाठ और वैदिक कर्मकांड नहीं। धर्म का अर्थ है; नियम, कायदे-कानून, मर्यादाऐ, नैतिक आचरण के तौर तरीकोका पालन करना। इन सबके कारण हमारे परिवार का, समाज और राष्ट्र का, एवं सृष्टि का धारण, रक्षण और पोषण होता हैं। “सर्वे भवन्तु सुखिनः। सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु। मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत्॥“ हमारी सुख की, विकास की कल्पना संकुचित नहीं हैं। हम केवल हमारे परिवार का, हमारे समाज का सुख नहीं चाहते। हमारी इच्छा यह होनी चाहिये की इस सृष्टि के सारे जीव सुखी-समाधानी रहे। किसी भी मनुष्य या प्राणी के जीवन में दुःख का अडसर न हो। पूजनीय गोलवलकर गुरुजीने कहा हैं की जो मनुष्य सुख को प्राप्त करना चाहता हैं, वह सुख अखण्ड, चिरंतन सुख होना चाहिए। क्षणिक सुख भविष्य में समस्याएँ उत्पन्न कर सकता हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने भगवत गीता में कहा हैं, “संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः। ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः।।” यानि जो अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके अचिन्त्य, सब जगह परिपूर्ण, अनिर्देश्य, कूटस्थ, अचल, ध्रुव, अक्षर और अव्यक्तकी उपासना करते हैं, वे प्राणिमात्रके हितमें रत और सब जगह समबुद्धिवाले मनुष्य मुझे ही प्राप्त होते हैं। हम विकास का ऐसा मार्ग अपनाना चाहिये जिसमे सभी जीवों का, सारी सृष्टि का हित हैं।
डॉ. बजरंगलालजी ने इस प्रकार के सुख को ‘समग्र-सामाजिक’ सुख कहा हैं। यह समग्र-सामाजिक सुख पांच बातों पर निर्भर हैं, जो विकास की योग्य मार्गपर ले चलेंगे।
१. सब को रोटी। रोटी यहाँ प्रतीकात्मक शब्द हैं। राष्ट्र में रहनेवाले सभी लोंगोंको जीवनावश्यक और अनिवार्य वस्तुओंके पूर्ति का आश्वासन। आज भी ऐसे कई सारे परिवार हैं; जिनकी रोटी, कपड़ा और मकान जैसी सामान्य जरूरत पूरी नहीं होती। हमे विकास की ऐसी राह चुननी हैं, जो लोंगोकि इन सभी जरूरतोंको कायम पूरा करेगी।
२. सबको संस्कारक्षम समाजपयोगी शिक्षा के समान अवसर मिले। हमारी शिक्षा नीति केवल विद्यार्थियोंको ज्ञान देना यहाँ तक सीमित न रखते हुए, उन्हें चरित्रवान बनानेवाली होनी चाहिए। हमारे मनुस्मृतिमे कहा गया हैं, “एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः। स्वं स्वं चरित्रे शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः॥” इस देश में समुत्पन्न ब्राह्मज्ञानी [विद्वान] से पृथ्वी के समस्त मानव अपने अपने चरित्र्य की शिक्षा ग्रहण करें। स्वामी विवेकानंदजी ने अंग्रेजों से कहा था, In your culture tailor makes gentlemen, But in our culture character make gentlemen. विद्यार्थोयोंको दिए जानेवाली शिक्षा समाज के हर वर्ग के समस्याओं का निवारण करने वाली होनी चाहिए।
३. सबको स्वास्थ। स्वास्थ यानि केवल शारीरिक स्वास्थ नहीं, बल्कि शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक स्वास्थ। शरीर के साथ साथ व्यक्ति का मन और बुद्धी भी सुदृढ़ होनी चाहिए, तभी व्यक्ति अपनी सर्वांगीण प्रगति कर सकता हैं। स्वस्थ व्यक्ति का आचरण संतुलित होता हैं। निरोधात्मक स्वास्थ पद्धति, यानि बीमार ही न पड़ना। आहार, विहार और व्यवहार व्यक्ति का उचित हो, तो वह व्यक्ति बीमारी से दुर रहते हैं। उपचारात्मक स्वास्थ पद्धति में केवल एलोपैथी ठीक नहीं हैं, उसके इलाज के साथ साथ दुष्परिणाम सहने पड़ते हैं। हम हिंदुस्तानियोने, आयुर्वेद का उपयोग भी हमारी तंदुरुस्ती और बीमारियोँके इलाज लिए करना चाहिए।
४. सभी को रोज़गार। करोना महामारी के कारण बेरोज़गारी की समस्या सारे दुनिया को परेशान कर रही हैं। पश्चिमी राष्ट्रोंकी विकास पर आधारित रोज़गार योजना की वजह से समाज में आर्थिक विषमता बढ़ रहीं हैं। अर्थव्यवस्था का विकेन्द्रीकरण ही रोज़गार निर्माण कर सकता हैं। स्वदेशी उत्पादनोको अपनाना ही इस समस्या पर इलाज हैं।
५. सबको सुरक्षा। समाज के सभी वर्गोंको आंतर और बाह्य सुरक्षा मिलनी चाहिए।
आज के इस विकास के दौर मे तंत्र-ज्ञान का बड़ा महत्व हैं। यह विकास हम पश्चिमी तंत्र-ज्ञान का अनुकरण कर के नहीं कर सकते। हमे तंत्र-ज्ञान में ऐसे बदलाव करने चाहिए, जो हमारे भारतीय समाज को उपयुक्त हो। हमें तंत्र-ज्ञान को देशानुकूल बनाकर अपनाना चाहिए। स्वदेशी, स्वावलंबन और विकेन्द्रीकरण यह चीजें हमारे विकास की भारतीय कल्पना के मूल्य हैं। हम सभी को अपनी उपभोगशैली और जीवनशैलीमें बदलाव करने होंगे। सीमित, सैयमीत और सदाचारी उपभोगशैली का आचरण करना होगा। जरुरत के हिसाब से वस्तुओ और सेवाओं का उपभोग करे। संपूर्ण समाज में वस्तुएँ और सेवाओं का सामान वितरण होना अपेक्षित हैं। ईशोपनिषद में इस के बारे मे कहा हैं की “ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ।।” जड़-चेतन प्राणियों वाली यह समस्त सृष्टि परमात्मा से व्याप्त हैं। मनुष्य इसके पदार्थों का आवश्यकतानुसार भोग करे, परंतु ‘यह सब मेरा हैं|’ यह भाव के साथ उनका संग्रह न करे।
डॉ. बजरंगलालजी गुप्त ने अपने उद्बोधन के आखिर में कहा, भारतीयों को अपने विकास का रास्ता खुद तलाशना हैं। पश्चिमी विकास के ढाँचे से बाहर आना चाहिए। तभी अपने राष्ट्र का और सारी वसुंधरा का मंगल होना तय हैं।