वर्तमान संदर्भ में हिंदुत्व की प्रासंगिकता
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, (RSS)कोंकण प्रांत (KOKAN PRANT) ने सितंबर की माह में आयोजित किए, बौद्धिक वर्ग श्रृंखला का द्वितीय बौद्धिक वर्ग दिनांक १३ को विश्व संवाद केंद्र के यू ट्यूब चैनल पर प्रसारित हुआ। इस बौद्धिक वर्ग में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह, माननीय सुरेश उपाख्य भैयाजी जोशी, इनका “वर्तमान संदर्भ में हिंदुत्व की प्रासंगिकता” इस विषय पर उद्बोधन हुआ। भैयाजीं का जन्म इंदौर में हुआ था। भैयाजी १९७५ से संघ के प्रचारक हैं। २००९ से भैयाजी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह हैं।
उद्बोधन के शीर्षक को लेकर भैयाजी ने कहा, ‘चिंतन’ यह हमेशा अपरिवर्तनीय रहता हैं। चिंतन के आधार पर होनेवाला आचरण, व्यवहार काल सुसंगत होता हैं। भैयाजी ने उद्बोधन के शीर्षक में परिवर्तन करते हुए, इसे “वर्तमान में हिंदुत्व की अभिव्यक्ति” ऐसा कहा। क्यों की परिचय सिद्धांतों के साथ साथ आचरण से संबंधित हैं। हर देश की, हर समाज की, अपनी एक पहचान होती हैं। हम सब भारतीयों की भी पहचान हैं, और यह पहचान हिंदू शब्द के साथ जुड़ी हुई हैं। हम दुनियाँ में कही भी जाकर अपनी पहचान हिंदू बताएँगे, तो लोग कहेंगे के आप भारत के हैं। अगर हम कहेंगे हम भारत से आये हैं, तो लोग कहेंगे के आप हिंदू हैं। भारत और हिंदू यह शब्द सारे संसार में एक माने जाते हैं। आज के संदर्भ में आचरण को लेकर विचार करना प्रासंगिक हैं। दुनियाँ के नज़रों में भारतीय व्यक्ति, धार्मिक व्यक्ति हैं। धार्मिक शब्द के संकुचित व्याख्या के अनुरूप हमारा वर्णन किया जाता हैं। मंदिरों में जाना, तीर्थक्षेत्र की यात्रा करना, पूजा-पाठ करना, इन सब के लिए हर प्रकार के कष्ट उठाना, व्रत रखना ऐसी हमारी पहचान सारी दुनिया के सामने हैं, और इन सब बातों को लेकर हमारे मन में संकुचित भाव न लाते हुए, इन सब के प्रति हमें अभिमान होना चाहिए। जब हमे कोई पूछता हैं, के हिंदू यह कोई पूजा पद्धति हैं क्या? तब हम जवाब में कहते हैं, हिंदू यह हमारी जीवनशैली हैं। तिलक लगाना, मंदिरों में जाना, पूजा- पाठ करना, ॐ और स्वस्तिक जैसे प्रतिकों का सन्मान करना, घर के आंगन में तुलसी वृंदावन का होना, उस तुलसी वृंदावन की घर के माता द्वारा नित्य पूजा करना, हिंदुत्व का बाह्य प्रगटीकरण हैं। इस बाह्य प्रगटीकरण द्वारा गैर हिंदुओं को, हम हिंदुओं की पहचान होती हैं। हिंदुत्व का विचार, हिंदुओं के बाह्यरूप से करना, वह अधूरा विचार होगा। बाह्यरूप के साथ साथ और कई सारे बातों का विचार करना जरुरी हैं। हमारे सारे चिंतन के लिए एक सैद्धांतिक आधार हैं। उस सैद्धांतिक आधार के बारेमें हमारे मन में ना कोई किंतु हैं न कोई प्रश्न हैं। दूसरों के प्रश्न का समाधान करने की क्षमता हम सब लोगों में आनी चाहिए। स्वामी विवेकानंदजी के एक वक्तव्य को स्मरण करते हुए भैयाजी ने कहा, हिंदुत्व भारत की एक वैचारिक अधिष्ठान हैं (नींव हैं), यह नींव बहुत सशक्त हैं, मजबुत हैं, इसके बारेमें विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं, समय समय पर विचार करना पड़ता हैं, के उस नींव पर जो भवन खड़ा हैं, वह भवन जर्जर हुआ हैं, उसमे कई प्रकार के दोष निर्माण हुए हैं, इसीलिए नींव के संदर्भ में विचार न करते हुए, हमे इस भवन को ठीक करने की आवश्यकता हैं। विचार कभीभी परिवर्तनीय नहीं होता हैं, वह अपरिवर्तनीय हैं। हमारी सैद्धांतिक धरना है की, चेतना शक्ति हैं, वो ईश्वरमय हैं। इस संसार में जो जो चैतन्ययुक्त हैं, वह ईश्वर हैं। सरल शब्दों में इसका अर्थ यह हैं, की हर प्राणिमात्र में ईश्वर हैं। उपनिषदों में कहा हैं, “ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ।।” सर्वत्र जिसका संचार हैं, सर्वत्र जिसकी व्याप्ति हैं, अनुभूति हैं, वह ईश्वर की अनुभूति हैं। प्राचीन काल से हमारी धरना हैं, सैद्धांतिक भाव हैं, के सारा यह चैतन्य जगत, ईश्वर के शक्ति से व्याप्त हैं, इसिलिए प्राणीमात्र में ईश्वर का अंश हैं। दूसरी बात यह हैं की, भौतिक शरीर हम सब को प्राप्त हुआ हैं। यह शरीर पंचमहाभूतों द्वारा निर्माण हुआ हैं। इसलिए यह शरीर कालचक्र के नियमों के अनुसार निर्माण और नष्ट होता रहेगा। परंतु इसके अंदर का जो चैतन्य हैं, वह अभिलाषी हैं, हम उसे आत्मा, प्राण कहते हैं। आत्मा नष्ट नहीं होता, समाप्त नहीं होता, वह अविनाशी हैं। जब हिंदुओं में किसी व्यक्ति की मृत्यु होती हैं, तो हम कहते हैं की, वो व्यक्ति जहां से आए थे वहा विलीन हो गए, पंचत्व में विलीन हो गए। सरल भाषा में हम कहते हैं, कल थे आज चले गए। आत्मा अविनाशी हैं, चिरंतन हैं, वह शरीर बदलते रहता हैं, ऐसी हमारी सैद्धान्तिक मान्यता हैं। अगर हमे अपने सिद्धांतों को सुरक्षित रखना हैं, तो मंदिर, पूजा-पाठ, कर्मकांड, यह अपने इस अंतःकरण की भावना को सशक्त बनाने का बहुत महत्वपूर्ण कार्य करते हैं। इस बाह्य उपचार के कारण हम अपने आप को सुरक्षित महसूस करते हैं। इसलिए इन बाह्य उपचार का भी महत्व हैं, लेकिन इस प्रकार की जो हमारी सैद्धांतिक भूमिका हैं, उसका स्मरण रखना पड़ता हैं। एक बात हम और समझते हैं, की पंचमहाभूतों से जब शरीर की निर्मिती हुई, इसलिए पंचमहाभूत अलग हैं और हम अलग हैं ऐसा हम नहीं मानते। जिसके द्वारा शरीर का निर्माण हुआ, वह बड़ा मज़ेदार हैं। अग्नि और जल का कोई परस्पर संबंध नहीं हैं, अग्नि और वायु का कोई परस्पर संबंध नहीं हैं, भूमि और जल का कोई परस्पर संबंध नहीं हैं। भौतिक शरीर में इन पंचमहाभूतों का समन्वय होता हैं, तब जाकर हमारे शरीर की निर्मिती होती हैं। इसी कारण हम हिंदू, इन पंचमहाभूतों को देवता मानकर उनकी पूजा करते हैं। जब हम मंदिर जाते हैं, तब हमारे ध्यान आता हैं की, मंदिर के परिसर में वृक्ष हैं, जलाशय हैं, गो- शाला हैं, मंदिर का वातावरण प्रसन्न रहे, इसलिए धूप जलाया जाता हैं। हम हिंदुओं के मंदिर यह केवल मिलन के केंद्र, विचार विमर्श के केंद्र नहीं हैं। पंचमहाभूतों का दर्शन और पंचमहाभूतों के संदर्भ में हम सब के अंतःकरण में देवता का भाव, पूजा का भाव रहता हैं। जब पंचमहाभूतों को देवता मानते हैं, तो उसके साथ संघर्ष कैसा होगा? हमारे पर्व पर्यावरण की दृष्टी विकसित करने वाले हैं। लेकिन वह दृष्टी बाह्य उपचार करनेवालोंने रखने की आवश्यकता हैं। अन्यथा कर्मकांड रहता हैं, मूलभाव क्षीण हो जाता हैं, इसे हम सभी ने समझना आवश्यक हैं। हम हिंदुओं, में घर की माताए वटवृक्ष की पूजा कराती हैं, तुलसी की पूजा कराती हैं। यह पूजा क्यों की जाती हैं? इसका कारन हैं, वृक्ष के संदर्भ में हमारा कुछ रिश्ता हैं, संबंध हैं। परंतु आज बड़े बड़े महानगरों में वटवृक्ष ना होने के कारण, बाजार से वटवृक्ष की टहलिया ख़रीद कर लाई जाती हैं। माताए उस वटवृक्ष के टहलियों की पूजा कराती हैं। वटवृक्ष की इस तरह पूजा करना यह कर्मकांड हैं। वटवृक्ष का पूजन करते समय वृक्षों का रक्षण करने का भाव मन में स्थापित करना यह मूलतः होने की आवश्यकता हैं। वटपुर्णिमा के पूजा का संकेत हम सब के लिए वृक्षसंवर्धन के नाते हैं। हम नदियों की पूजा- अर्चना क्यों करते हैं। क्यों की यह नदियाँ हमारे लिए जीवनदाई हैं। इन नदियों का संबंध सीधे हमारे जीवन से हैं। नदियों का पानी शुद्ध और बहता रहना, यह हमारी जिम्मेदारी है। नदियों के प्रवाह में अवरोध निर्माण करना, या फिर नदियों के पानी को प्रदुषण से ग्रस्त करना वास्तव में पाप होगा। अपने सारे पूजा-पाठ और कर्मकांड का वैज्ञानिक अर्थ समझकर अगर हम करेंगे तो हमारे ध्यान में यह बात आएगी की, मानवों का प्रकृति के साथ रिश्ता सिद्ध करने के लिए बताई गई। वैसे ही अर्थ की ओर देखने की हमारी दृष्टी अलग हैं। अर्थ हमारे आवश्यकताओं की पूर्ति करने साधन हैं। अर्थ का अभाव बहुत ही कष्टदायक होता हैं और अर्थ का प्रभाव हमे विकृति की और ले जाता हैं। अर्थ का अभाव भी न हो और अर्थ का प्रभाव भी न हो, ऐसा संतुलन आवश्यक हैं। सिद्धांत कहता हैं ‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’, हमने इसका स्विकार नहीं किया। हम सभी हिंदुओं ने ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ पर विश्वास रखा। बहुजन हिताय बहुजन सुखाय में अल्प जन का सुख अपेक्षित नहीं हैं, इसलिए यह अपूर्ण तत्वज्ञान हैं। सर्वे भवन्तु सुखिनः यह पूर्ण तत्वज्ञान हैं। हम हिंदू चमक-धमक का सन्मान नहीं करते। चमक- धमक का केवल प्रभाव रहता हैं, सन्मान सादगी का होता हैं। एक सादगीपूर्ण जीवन जीना यह बात हमारे अर्थ व्यवहार में बताई गई हैं। भोगवाद में व्यक्ति आत्मकेंद्रित बनता हैं। दूसरों को मिले न मिले, मुझे मेरी कामनाओं को पूरा करना हैं, यह भोगवाद का एक विकृत परिणाम होता हैं। हम हिंदुओं ने हमेशा त्याग की भावना और सादगी का सन्मान किया, न की भोगवाद का। हमे भोगवाद को विकृति मानना चाहिए। केवल अपने बारेमें सोचना, यह भारतीयों की दृष्टी नहीं। अपने यहाँ पर प्रारंभ से व्यवस्था रही हैं, के स्वाभाविक रूप से व्यवसाय, उद्योग या व्यापार करेंगे, धन कमाएँगे। धन कमाने पर हमने कभी भी, किसी के ऊपर रोक नहीं लगाई। लेकिन धन कमाने के बाद, उस धन पर समाज का भी अधिकार हैं, यह संस्कार हमारे यहाँ मिलता हैं। जैसे की हम देखते हैं, कई समाजोपयोगी कर्म, समाज के धनी लोगो ने किए। प्राचीन काल में धर्मशालाएँ बनती थीं, प्राचीन काल में चिकित्सा की व्यवस्था होती थीं। आज भी यह सब व्यवस्था समाज का संपन्न वर्ग, अपने कमाए हुए धन से करते हैं। इस प्रकार, संस्कार और दृष्टी का बने रहना बहुत आवश्यक हैं। हम हिंदुओं का महिलाओं के ओर देखने का अलग दृष्टिकोण हैं। हम महिलाओं को माता सामान दर्जा देते हैं। महिलाओं की रक्षा, उनका स्वावलंबन, उनका सम्मान यह हिंदू संस्कृति को नई बात नहीं हैं। परंतु आज के ज़माने में, इन सब बातों में विकृति आई हैं। महिलाऐ और पुरषों का प्रमाण व्यस्त होना एक सामाजिक चुनौती बन गया हैं। जब हमने हिंदुत्व का दृष्टिकोण छोड़ा तब कन्या भ्रूण हत्या होने लगी। जन्म लेने से ही कन्या को रोकना, इससे बड़ा पाप क्या हो सकता हैं। भारत के कई प्रांतों में १००० पुरषों के पीछे ८०० से ८५० महिलाएँ हैं। यह जो अंतर हैं, इसका कारण हमारे समाज में आया हुआ विकृत दृष्टिकोण हैं। समाचार पत्र में महिलाओं पर अत्याचार, महिलाओं का शोषण ऐसे कई प्रकार की घटनाएँ पढ़ने मिलती हैं। जिस देश में महिलाओं के सम्मान में उन्हें माता के नजरोंसे देखने की शिक्षा दीं जाती हैं, उसी देश के अंदर इस प्रकार की जो विकृति आई हैं, क्या यह हिंदुत्व के लिए ठीक हैं?
धर्म संदर्भ में भी हिंदू इस चिंतन में अलग़ प्रकार का अर्थ हैं। धर्म का अर्थ केवल पूजा- पाठ से जुड़ा हुआ नहीं हैं। वह संप्रदाय कहा जा सकता हैं। हर व्यक्ति भिन्न देवता को पूजता हैं, उस देवता की अलग पूजा पद्धति होती हैं, उस देवता से जुड़ा कोई ग्रंथ होता हैं, उसकी पद्धति विकसित होती हैं, वह संप्रदाय के रूप में रहता हैं। परंतु इन सब बातों को धर्म से जोड़ना पूर्ण रूप से ठीक नहीं। वास्तव में धर्म की जो एक व्यापक परिभाषा हैं, उसके बारे में अगर हम सोचेंगे, तो उसका जीवनशैली से संबंध हैं। भारत के सर्वोच्च न्यायलय ने कहा हैं, ‘हिंदू एक जीवनशैली’ हैं, उस जीवनशैली को समाज में प्रसारित करते हुए, उसे समझा ने की आवश्यकता हैं, अन्यथा अपना समाज बाह्य उपचार में ही उलझा रहता हैं। हमारी विशेषता हैं, जो करणीय कार्य हैं, उसे धर्म कहा हैं। धर्म कार्य यानि, वह कार्य जो हमें अवश्य करना हैं। अधर्म यानि जो कार्य हमें नहीं करना है। नास्तिक यानि अधर्म नहीं। कुछ लोग सब प्रकार के बाह्य आचरण से हिंदू दिखते हैं, लेकिन कर्म और कर्तव्य के स्तरपर वह अपना धर्म भूल जाते हैं, और अधर्म के रास्ते पर चलते हैं। कौरव भी हिंदू थे, परंतु उन्होंने धर्म का आचरण नहीं किया। कौरव अधर्म के मार्ग पर चल पड़े थे। यह आज की समस्या नहीं हैं। यह समस्या प्राचीन काल से हैं, और धीरे धीरे विकसित हो रही हैं, जिस कारण समाज का एक वर्ग अधर्म की ओर चल पड़ा। आज हमारा धर्म यानि कर्त्तव्य क्या हैं, इसे बताने की आवश्यकता हैं। धर्म के संदर्भ में कहा गया हैं, जो करना अनिवार्य हैं, उसे धर्म कहते हैं। जो धर्म के लिए अपने प्राण देने के लिए तैयार हो उसे धार्मिक कहा गया है। अधर्म का कार्य दबाव होने के बावज़ूद न करते हुए, मृत्यु को स्वीकार करना, इसे धर्म कहा हैं। हम हिंदू अधिकारों से ज्यादा कर्तव्य की बात करते हैं। मातृधर्म, पितृधर्म, राजाधर्म, प्रजाधर्म, सेनाधर्म और पडोसीधर्म यह सब कर्त्तव्य की बाते हैं अधिकारों की नहीं। धर्म ने हमें कर्तव्य पालन सिखाया हैं। माता-पिता अपना कर्तव्य पालन करते हैं, इसलिए बच्चों के अधिकार सुरक्षित हैं। पाल्य अपना कर्तव्य पालन करते हैं, इसलिए माता-पिता का सम्मान सुरक्षित हैं। इस प्रकार धर्म की एक व्यापक कल्पना समाज के सामने रखने की फिर एक बार आवश्यकता हैं। अपने यहाँ की कुछ व्यवस्था हिंदू समाज की विशेषता हैं। हमारी कुटुंब व्यवस्था सारे समाज का एक बहुत बड़ा आधार हैं। हम इस कुटुंब व्यवस्था के बारे में सोचेंगे, तो ध्यान में आता हैं के, हजारों वर्षों से जो संस्कार, संस्कृति, जीवन मूल्य अब तक जीवित रहे, उसका कारण कोई गुरुकुल या कोई विश्व विद्यालय नहीं हैं, बल्कि हमारी कुटुंब व्यवस्था हैं। हर पीढ़ी अपने आगे आनेवाले अगली पीढ़ी में श्रेष्ठ विचारों को संक्रमित कराती हैं, नैतिक बातें सिखाती हैं, जीवन के मूल्य बताती हैं। कुटुंब की परिभाषा बहुत व्यापक हैं। इस परिभाषा में केवल पति-पत्नी और उनके पाल्य नहीं आते। इन सभी से रिश्तों में जुड़े हुए पीछे की और आगे की पीढ़ियों के रिश्तेदार आते हैं। उस परिवार द्वारा पालन किये जाने वाले पशु-पक्षिओं को भी कुटुंब का हिस्सा माना जाता हैं। पश्चिमी देशों के कुटुंब के धारणा से अधिक व्यापक हम हिंदुओं की धारणा हैं। पश्चिमी देशों में कुटुंब निर्माण किए जाते हैं। कुटुंब निर्माण करना और कुटुंब विकसित करना इसका मूलभूत अंतर समझना आवश्यक हैं। कुटुंब निर्माण करने की प्रक्रिया को क़ानूनी आधार मिलता हैं। आज के दौर में हमें विवाह का पंजीकरण करना पड़ता हैं। पंजीकरण अधिकारी के दफ़्तर में गवाह लेकर जाना पड़ता हैं, वहा हस्ताक्षर करने पड़ते हैं, कानूनी बाते स्विकार करनी पड़ती हैं, तब जाकर आप कानूनी तौर पर परिवार बनता हैं, क्या यह भारतीय परंपरा हैं? हिंदू संस्कृति में कुटुंब की मान्यता समाज देता हैं। इसी कारण विवाह समारंभ में हम अपने रिश्तेदार, आप्त-स्वकीय, मित्र बुलाते हैं। हम उन सभी को साक्षी मानकर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते हैं। इस प्रकार में कानूनी बंधन नहीं, बल्कि सामाजिक बंधन रहता हैं। गृहस्थाश्रम को भी एक श्रेष्ठ धर्म माना जाता हैं। आज हम पश्चिमी दुनिया का अनुकरण करने लग गए, तो मदर्स डे, वैलेंटाइनस डे, चिल्ड्रेंस डे जैसे दिन मानते हैं। हमारी परंपरा के अनुसार, हमें प्रतिदिन अपने घर के ज्येष्ठों को प्रणाम करना चाहिए। पश्चिमी जगत में घरेलु संबंध के आभाव के कारण, साल में एक बार ऐसे दिन मनाए जाते हैं। हमें अपने प्रेम का आचरण करना चाहिए, दर्शन या प्रगटीकरण नहीं। हम हिंदुओं को ऐसे औपचारिक दिन मनाने की जरुरत नहीं।
अपने समाज में जो व्यवस्थाऐं हैं, उन्हें समझना होगा। हम प्रथम शिक्षक अपनी माँ को मानते हैं। हम मातृदेवो भवः, पितृदेवो भवः और आचार्यदेवो भवः, यह सब मुखोद्गत करते हैं। हमारी सबसे पहली शिक्षक, आचार्य, हमारी माँ हैं। यह जो अपनी परंपरागत व्यवस्था हैं, हिंदू चिंतन में इसका महत्व हैं। ऐसे चिंतन का नष्ट होना, यानि अधार्मिक होना हैं, अहिंदु होना हैं। अगर हमें अपने आप को हिंदू कहना हैं, तो इन सारी व्यवस्थाओं का संरक्षण करते हुए, अपने नित्य जीवन में इन व्यवस्थाओं का पालन करें। यह सब चिंतन के काल प्रवाह में, समय पर अगर हमने ध्यान नहीं दिया, तो कई प्रकार के दोष भी समाज में आते हैं। वैसे अपने समाज में भी कुछ दोष निर्माण हुए हैं। इन दोषों की उत्पत्ति, ठीक समय पर मार्गदर्शन या सही परिवेश न मिलाने के कारण होती हैं। जाती व्यवस्था का हिंदू चिंतन या हिंदू सिद्धांत में कोई आधार नहीं हैं। “ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ।।” अगर सब जग़ह ईश्वर हैं, तो जाती के आधार पर भेद क्यों होता हैं ? श्रीमद भगवतगीता में कहा हैं, “अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च। निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी।।” किसी के प्रति द्वेष की भावना मत रखना। द्वेष की भावना से रिश्तों में दूरियाँ बनती हैं, गलत फैमियाँ बनती हैं और फिर एक दूसर की ओर देखने की दृष्टि विकृत हो जाती हैं। इसे हिंदू चिंतन में कही भी स्थान नहीं हैं। जन्म के आधार पर जाती और जाती के आधार पर आचरण का स्तर, आचरण की शैली बनाना, यह बहुत अनुचित प्रकार हैं। वास्तव में कहाँ पर जन्म लेना, यह मनुष्य के हातों में नहीं हैं। जो अपने अधिकार श्रेणी में नहीं आता हैं, जो अपने हातों में नहीं हैं, जो हमें जन्म से प्राप्त हुआ, उसके आधार पर किसी व्यक्ति के साथ अन्याय करना, किसीके साथ भेद-भाव का व्यवहार करना, क्या यह उचित हैं ? जब हम हिंदुत्व को भूल जाते हैं, हिंदुत्व के मूल सिद्धांतों को भूल जाते हैं, तब इस विकृति आती है। जाती भेद के आधार पर जब विकृति आती हैं, तब लोग स्पृश्य-अस्पृश्यता का पालन करते हैं। अगर हम सभी हिंदू, भगवान के अंश हैं, तो किसी को छूना किसी को न छूना, यह बात कहा से आई? स्वछता, शुद्धता यह सब अलग विषय हैं, पर जन्म के आधार पर अस्पृश्यता का व्यवहार करना, यह बात ठीक नही। इसलिए, कालप्रवाह में, इस प्रकार के दोष हमारे अंदर आये हैं, उन दोषों को भी समझना जरूरी हैं। रिती- रिवाज, परंपरा के पीछे कुछ मूल उद्देष होता हैं। जब उन उद्देश्यों का विस्मरण हो जाता हैं, तब वही आचरण विकृति बन जाता हैं।
भारत में दहेज़ प्रथा हैं। दहेज़ प्रथा के पीछे कोई वैज्ञानिक भूमिका नहीं हैं। कन्या पक्ष को निम्न मानना और वर पक्ष को श्रेष्ठ मानना, यह कौन से तंत्र में लिखा हैं? दहेज़ जैसी विकृति के कारण दुर्भाग्य से विवाह का क्षेत्र, व्यापर जैसा हो गया हैं। बाजार में बिकने के लिए जैसे पशु की क़ीमत लगाती हैं, वैसे दुल्हा बनने वाला व्यक्ति की क़ीमत दहेज़ की रूप में लगाती हैं। क्या यह हिंदू जैसे प्रगट और सुसंस्कृत समाज के लिए शोभा देने वाली बात हैं? हमें भिन्न भिन्न प्रकार की कुरीतियों को पहचान कर, उन्हें अपने जीवन, आचरण से निकल देना होगा। काला-अनुसार क्या हैं? कालातीत क्या हैं? काल विसंगत क्या हैं? काल सुसंगत क्या हैं? यह विवेक जब हिंदू समाज में रहेगा, तभी इन सिद्धांतों का जीवित रहना संभव हैं। सिद्धांत जीवित रहते हैं, तो केवल उनके आचरण से। आचरण के आधार पर ही सिद्धांतों की श्रेष्ठता प्रकट होती हैं। दुर्भाग्य से अपने यहाँ, तत्वज्ञान आचरण के लिए नहीं हैं, ऐसा माना जाता हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक पुराने कार्यकर्ता, कठोर शब्दों में कहते थें, “जो आचरण में नहीं लाया जा सकता, वह सिद्धांत नहीं हैं”। सिद्धांत को आचरण में लाया जाना चाहिए। सिद्धांत के प्रति जागरूकता, सजगता और कटिबद्धता आवश्यक हैं। हम मानते हैं, काल सुसंगत बाह्य जीवन में परिवर्तन आएगा। कई प्रकार के बातों को हमने परिवर्तीत होते देखा हैं। समय और विज्ञान के प्रगति के अनुसार, जीवनोपयोगी वस्तुएँ, जीवन के आवश्यकताओं की पूर्ति करनेवाली बाते कल सुसंगत हो सकती हैं, परंतु आचरण हमेशा कालतीत रहता हैं। हिंदू चिंतन में कभी भी एक केंद्र व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया। समाज जीवन बहु-केंद्रित व्यवस्थाओं के आधार पर चलता आया हैं। आज लोकतंत्र में एक नई व्यवस्था को स्वीकार करने के कारण, राजसत्ता एक बहुत शक्तिशाली केंद्र बन गया हैं। सारे जीवन को संचालित करने का केंद्र सिर्फ एक हो गया हैं। आज हमने जिस तंत्र को स्वीकार किया, वहीं से यह बात आए होगी। भारतीय संस्कृति में राजा और शासन की भी मर्यादा बताई हैं। किसी प्रकार के व्यवस्थाओं का निर्माण करना, समाज के आवश्यक्ताओं की पूर्ति करना, समाज के लिए संसाधन उपलब्ध करना, समाज-सुरक्षा, यह काम अवश्य ही सत्ता का हैं, शासन का हैं। लेकिन सामाजिक दोषों से मुक्ति, निर्दोष समाज निर्माण करना, समाज में परिवर्तन लाना, यह किसी भी राजसत्ता से संभव नहीं हैं। यह केवल समाज जागरण के माध्यम से ही संभव हैं। इसलिए अपने यहाँ पर समाज जागरण करनेवाली भिन्न भिन्न प्रकार की व्यवस्थाऐ स्वायत्त रहीं हैं स्वतंत्र रही हैं। सत्ता को ऐसे व्यवस्थाओं के प्रति हमेशा सम्मान और समर्थन करना चाहिए। आज के व्यवस्था में कूछ छोटी सी बात आई होगी, तो यह सत्ता केंद्रित बाते हुई, लेकिन उस बारेमे हम तुरंत परिवर्तन शायद नहीं ला सकते। किसी भी प्रकार के सत्ता के द्वारा सामाजिक परिवर्तन नहीं हो सकता। समाज अपने ही बल पर, अपने स्वयं के प्रयत्नों से, आए हुऐ दोषों को समाज मुक्त करता रहता हैं। हम हमेशा कहते हैं, की हम एक दूसरे की रक्षा करेंगे एक दूसरे को सहयोग करेंगे, इसी कारण समाज हमेशा परस्पर सहयोगी रहा हैं। हमने सहकारिता को जीवन मूल्य माना हैं, और उसका प्रारंभ अपने कुटुंब से ही होता हैं। व्यक्ति की यात्रा, ‘मैं’ से शुरू होकर ‘हम’ की ओर जाती हैं। इस यात्रा का प्रारंभ परिवार से होता हैं। आवश्यकता हैं, के व्यक्ति इस यात्रा को अपने समाज और फिर ‘वसुधैवं कुटुंबकम’ के कल्पना तक, अपने ह्रदय के भावों को करें। बाह्य जगत में दुनिया के अन्य चिंतकों ने जो बाते बताई हैं, उन बातों का हमने स्वीकार नहीं किया। जो शक्तिशाली हैं, उसे जिने का अधिकार हैं। हमने कहा, शक्तिशाली का दायित्व बनता हैं, के दुर्बल वर्गों की सहायता करे और दुर्बल वर्गोंको सक्षम बनाए। बाहरी दुनिया का दूसरा एक सिद्धांत हैं, जो कमाऐगा, वह खाएगा। हिंदू चिंतन में कहा हैं, जो कमाऐगा वह सबको खिलाएगा। हम प्रकृति को देवता मानते हैं, इसलिए हम प्रकृति का शोषण नहीं, प्रकृति का दोहन करते हैं। इस मुलभुत जीवन दृष्टि को हिंदू जीवन दृष्टि कहा हैं। इस दृष्टि को ह्रदय से स्वीकार करने की आवश्यकता हैं। बहुत वर्ष पूर्व चाणक्याजी ने उस समय की समाज अवस्था को देखकर जो कहा वह आज भी हमें सोचने के लिए प्रेरित करता हैं, “मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत् | आत्मवत्सर्वभूतेषु यः पश्यति सः पण्डितः ||” पहली बात चाणक्यजी ने कहीं, किसी भी समाज में महिलाओं के संदर्भ में देखने की जो दृष्टि हैं, वह माँ के सामान होनी चाहिए, तभी समाज सुरक्षित रहेगा। दूसरी बात चाणक्यजी ने कहीं, पराए लोगों का धन मेरे लिए मिट्टी सामान हैं, ऐसा हमें मानकर चलना चाहिए। आज की हमारी समस्या हैं, जो मेरा है वह मेरा हैं, पर दूसरों के पास हैं, वह भी मेरा हैं। यह भाव दुर्भाग्य से विकसित हुआ हैं। भ्रष्टाचार की जो समस्या आज हम अनुभव करते हैं, वो पराए लोगों का धन मिट्टी के सामान हैं, इस सिद्धांतों विस्मरण और आचरण में दोष आने के कारण हैं। आज यह बार बार कहना पड़ता हैं, हम अपने परिश्रम से कमाएंगे और उसके आधार पर मेरा जीवन चलेगा पराए लोगों के धन पर मेरी दृष्टि नहीं। तीसरी बात चाणक्यजी ने कहीं, जैसे हम स्वयं हैं, वैसे दूसरे लोग है ऐसा सोचना। अगर ये तीन बाते सशक्त रहती हैं, तो दुनिया की कौनसी शक्ति हैं, जो इस प्रकार के समाज को चुनौती दे सकती हैं ? आखिर में चाणक्यजी ने कहा था, यः पश्यति सः पण्डितः, आज के परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए भैयाजी ने इस बात को बदलते हुए कहाँ, “यः पश्यति सः हिंदुवः”। हिंदू वही है जो पराए महिलाओं माता सामान मानता हैं। हिंदू वही है जो दुसरओं के धन को मिट्टी सामान मानता हैं। हिंदू वही है जो दूसरों को अपने जैसा समझता हैं। हिंदुओं का चिंतन हमेशा दूसरों का सम्मान करने का रहा हैं। हम सभी विचारों का, सभी पूजा पद्धति का सम्मान करना यह हम हिंदुओं की विशेषता हैं। सत्य एक हैं, और सत्य की और जाने के मार्ग विभिन्न हो सकते हैं, ऐसा हमारा मानना हैं। सारा विश्व अगर इस एक सिद्धांत को स्वीकार कर लेता हैं, इस एक तत्वज्ञान को मान लेता हैं, तो दुनिया में आज जो असहिष्णुता हैं, संप्रदायों के आधार पर जो अशांति निर्माण हो रही हैं, क्या उस अशांति की समाप्ति नहीं हो सकतीं? अंत में भैयाजी ने कहा, सारे विश्व को अगर उचित शांति चाहिए, तो इस समन्वय के विचार को लेकर सारी दुनिया को चलना पड़ेगा। इसी कारन सारे विश्व को मार्गदर्शन करने का दायित्व ईश्वर ने हिंदुओं को दिया हैं। हमारा चिंतन और सिद्धांत, शाश्वत और सर्वकालीक हैं, ये सभी लोगों के लिए हैं। हिंदू चिंतन, हमेशा उपयुक्त साबित हुआ हैं। हमें इसे हमेशा अपने आचरण में लाना चाहिए। हमारे हिंदू समाज में आचरण करने वाले लोगों के पीछे अनुकरण करने वाले लोग रहते हैं। इसलिए हम हिन्दू कहते हैं, “तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नैको ऋषिर्यस्य मतं प्रमाणम्। धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम् महाजनो येन गतः सः पन्थाः॥ ” महाजन वही है जो धर्म का आचरण करते हैं, जो सिद्धांतों की कटिबद्धता के साथ लेकर चलते हैं। महाजनों का अनुकरण सारा समाज करता हैं। हम सब इस प्रकार से महाजन बनाने की दिशा में प्रयत्नशील रहे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को आपसे यही अपेक्षा हैं।