नारी अस्तित्व के लिए संघर्ष – दूसरी कड़ी
लालेह २०१७ से इस बर्बर मानसिकता के खिलाफ लड़ रही है। उसके “नाम के लिए सब कुछ” की जंग में “Where is my name?” का नारा बुलंद हो रहा है. नारी की उत्पत्ति, पुरुष के लिए और पुरुष को सुख देने के लिए हुई है, जहां उसका स्थान गौण है और जो मात्र भोग का साधन है. तो फिर उसके अस्तित्व और नाम का परेशान कहाँ आता है?
‘Where is my name ? …
लालेह उस्मानी
दूसरी कड़ी
१९९२ में जन्मी, वह अफगानिस्तान की एक प्रमुख नारीवादी कार्यकर्ता हैं। उन्हें बीबीसी के २०२० के विश्व की शीर्ष १०० प्रभावशाली महिलाओं की सूची में समावेश किया गया है। वह अपने काम से सुर्खियों में आईं। ‘‘Where is my name ?… मेरा नाम कहाँ है? यह सवाल कई अफगानी महिलाओं के मन में उठता रहा है और लालेह ने इस सवाल को सार्वजानिक तौर पर सभी लोगों के समक्ष उठाये। इसके लिए, उन्होंने अखबारों, पोस्टरों, मीडिया की मदद से नारी के अस्तित्व की लड़ाई की शुरुआत की।
इस आंदोलन का बीज पुरुषप्रधान, कट्टरपंथी अफगान समाज में ही रचा बसा है । जन्म लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति को उसका नाम मिलता है, पर यहां, एक महिला का शरीर उसके नाम के साथ ही बुर्के में छिपा दिया जाता है। उसका नाम उसके जन्म प्रमाण पत्र पर, डॉक्टर के पर्चे पर, उसकी शादी के निमंत्रण पर, या उसकी मृत्यु के बाद उसकी कब्र पर भी नहीं उकेरा जाता है । वास्तव में, जिसका अस्तित्वही जिस समाज रचना को मान्य नहीं, वहा उसका निर्मूलन उसके नाम से अगर होता होगा, तो इसमें आश्चर्य क्या है ?
अफगानी समाज में शरीफ, उसी महिला को कहा जाता है, जिसे आज तक किसी ने देखा नहीं, जिस के बारे में किसी को कुछ भी मालूम नहीं। लालेह ने ऐसी नारी के बारे में कहा – “जिसे न तो आफताब (सूर्य) ने देखा और न ही महताब (चंद्रमा) ने।” यदि स्त्री का नाम घर के बाहर पता चला, तो वह स्वछन्द सोच वाली होगी, शायद बदचलन भीं।”
अगर किसी महिला का नाम लोगों में लिया जाता है तो उसे उसके पति, पिता, और उसके परिवार की बेइज्जती मणि जाती है। यह ना जाने कितने पीढ़ियों से चली आ रही है। इतना ही नहीं कोई भी पुरुष घर से बाहर अपनी मां, बहन, पत्नी या परिवार की किसी भी महिला का नाम नहीं लेता है। किसी बाहरी व्यक्ति के समक्ष उसके नाम का उल्लेख करना भी उसे अपनी आप में अपमान जैसा लगता है। उसके सम्पूर्ण जीवन चक्र में, वो पहले किसी की बेटी, शादी के बाद किसी की पत्नी और आखिर में किसी की माँ, यही उसकी पहचान और यही उसका अस्तित्व रहता है !
लालेह हेरात की एक घटना का उदाहरण देता है जहाँ सुभ्या है। एक स्थानीय अफगान महिला कोविड जैसे लक्षणों के साथ डॉक्टर के पास गई। डॉक्टर ने कोरोना का इलाज किया और गोलियां दीं और उस कोरोना संक्रमित मरीज के नाम से पर्ची लिख दी. जब यह बात महिला के पति को पता चली तो उसने उसे बेरहमी से पीटा वो भी इसलिए क्योंकि उसने अपना नाम एक अजनबी को बताया था।
एक और उदाहरण लालेह बताना चाहती है कि एक माँ जो जन्म देती है, प्रसव पीड़ा सहती है और उसका पालन-पोषण करती है क्या उसके बच्चे के जीवन में उसका कोई स्थान नहीं है? फरीदा सादात की शादी कच्ची आयु में हुई थी और पंद्रह साल की बाली उम्र में उसे मां बनने के लिए मजबूर कर दिया गया था। चार बच्चे होने के बाद, उसके पति ने उसे किन्ही तुच्छ कारणों से तलाक दे दिया। बेसहारा फरीदा जर्मनी में पलायन कर गई और अकेले ही अपने बच्चों की परवरिश की। बच्चों के जीवन में किसी भी तरह का सहभाग या जिम्मेदारी ना लेनेवाले उनके पिता का नाम मात्र बच्चों के सभी पहचान पत्रों पर दिमाखदार रूप से दिखाई देता हैं। पर जिसने अपने बच्चों को स्वयं खस्ता खाकर पाला, उस माँ का कहीं पर भी नाम नहीं, यह कैसा न्याय है?
लालेह २०१७ से इस बर्बर मानसिकता के खिलाफ लड़ रही है। उसके “नाम के लिए सब कुछ” की जंग में “Where is my name?” का नारा बुलंद हो रहा है. धार्मिक अध्ययन में पदवी हासिल की हुई लालेह के कुछ सवाल हैं – धर्म ने महिलाओं को क्या अधिकार दिए है? जो कुछ दिया जाता है, वो भी मध्यकालीन जंग खाए पुरुषप्रधान सामाजिक व्यवस्था ने वो उनसे छीन लिए हैं। मूल रूप से धर्म ही कहता है कि नारी की उत्पत्ति, पुरुष के लिए और पुरुष को सुख देने के लिए हुई है, जहां उसका स्थान गौण है और जो मात्र भोग का साधन है. तो फिर उसके अस्तित्व और नाम का परेशान कहाँ आता है?
सितंबर २०२० के आसपास, उसकी लड़ाई में सफलता के संकेत मिलने लगे। अफगानिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति अशरफ गनी ने इस मामले में दखल देते हुए Afghanistan Central Civil Registration Authority को इस मामले पर ध्यान देने हेतु निर्देश दिया | उन्होंने सुझाव दिया कि लड़की का नाम उसके जन्म प्रमाण पत्र पर और बच्चे के जन्म प्रमाण पत्र पर उसकी माँ के नाम के साथ होना चाहिए।
यहाँ तक की लड़ाई आसान नहीं थी । लालेह ने इसके लिए कई अपमान, संघर्ष, मौत की धमकी और हमलों के रूप में भारी कीमत चुकाई। कट्टरपंथियों को इस नामोल्लेख का मामला बिल्कुल स्वीकार्य नहीं था। उनका सक्रिय विरोध हो ही रहा था। अफगानिस्तान में इस तरह के रूढ़िवादी, कट्टरपंथी, तालिबान प्रवृत्ति का विरोध अर्थात शारीरिक शोषण या असामयिक मौत को आमंत्रित करने के समान है। लेकिन ऐसे में भी २५ साल के लालेह ने हार नहीं मानी। इसके लिए उन्होंने लगातार ३ वर्षों तक लड़ाई लड़ी।
परन्तु, भविष्य की घटनाएं किसके हाथ में होंगी, मालूम नहीं। अफगानिस्तान में हाल ही में सत्तांतर हुआ । परिवर्तन के लिए अनुकूल रहनेवाले राष्ट्राध्यक्ष अशरफ घनी की सरकार गिर गई है, वह स्वयं देश छोड़कर भाग गए। कट्टरपंथी मध्ययुगीन तालिबान शासन अपने क्रूर अत्याचारों और पिछड़े विचारधारा से अफगानिस्तान में तबाही मचा रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय समुदाय हाथ में हाथ डाले बैठा है। ऐसा लगता है कि उन्होंने अफगानिस्तान को आधार में छोड़ दिया है… कुल जमा, सुधारवादी आंदोलनों को खुलेआम छोड़ दिया है। तो आप सोच सकते हैं, सुधारवादी कार्यकर्ताओं की क्या स्थिति क्या होगी ?
ऐसी हालात में लालेह की क्या स्थिती हुई होगी, इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि लालेह हार नहीं मानेगी और अपने दम पर अपनी लड़ाई जारी रखेगी। वह आशावादी है और उन्हें विश्वास है कि स्थिति बदलेगी, लेकिन वह अफगानिस्तान की पछड़ी सोच और निष्क्रिय युवाओं की वजह से निराश भी हैं। शायद यही नारी का प्रारब्ध है, उपर वाले ने उसके नसीब में यही लिखा है। अफगानी महिलाएं मानती हैं परिवार के सन्मान के आगे अपना नाम ज्यादा मायने नहीं रखता। पर इस अँधेरे में भी उसे कल की सुबह दिखाई देती है। क्योंकि प्रश्न नारी के अस्तित्व का है।
सुष्मिता देशमुख-घोगले
बी. ई.
आईटी प्रोफेशनल
संदर्भ: https://www.bbc.com/hindi/international-53444533
इस्लाम के अंतरंग डॉ. श्रीरंग गोडबोले स्त्री का निर्माण, पृष्ठ क्र १५२