विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र मे भारत का योगदान:भाग 6
विशेष माहिती श्रृंखला : भाग 6 (6-30)
मोहनजोदड़ों में नगर नियोजन;
3000 ई.पू. में भी हड़प्पा सभ्यता काफी विकसित अवस्था में थी। अनुसंधानों से स्पष्ट है कि तत्कालीन भवन निर्माण की मजबूती और परिष्कृत गुणवत्ता के पदार्थों के उपयोग की दक्षता अत्यंत विस्मयजनक है।
उन नगर निर्माताओं ने प्रमुख आम रास्तों की उत्तर से दक्षिण व पूर्व से पश्चिम में तथा लंबवत काटती सीधी गलियों की सुव्यवस्थित योजना बनायी थी। इससे स्पष्ट है कि उन्हें नगर नियोजन का काफी अनुभव था।
प्रमुख भवन काफी हद तक नियमित रूप से मुख्य दिशाओं की और अभिमुख थे। उन्हें गारे व जू से बनाया गया था और आवश्यकतानुसार जोड़ों को भंग किया गया था। इस शरीष्ट कि उस काल के निर्माता ईटो से भवन निर्माण की कला में पूर्णरूपेण अनुभवी थे।
प्रतिष्ठित नगर लोथल में आवासीय भवन खंड, दुर्ग, अत्रागार बाजार, विशाल सार्वजनिक स्नानगृह और कई अन्य सार्वजनिक भवन योजनाबद्ध तरीके से बनाये गये थे। यहाँ का ढका हुआ जल निकास तंत्र प्राचीन विश्व में एक अद्वितीय उदाहरण था।
पांचवीं सदी ई.पू. के अंत में मौर्य राज्यवंश का उदय हुआ, जिससे उत्तरी भारत में एक सर्वोच्च शक्ति की स्थापना हुई । उस समय वहाँ महत्वपूर्ण सांस्कृतिक प्रगति हुई । इस काल में अन्य उपलब्धियों के साथ-साथ, शासकीय संरक्षण व प्रोत्साहन के अंतर्गत निर्माणकला में भी उल्लेखनीय उन्नति हुई । मेगस्थनीज के लेखों में बौद्ध स्मारकों पर उत्कीर्ण ऐतिहासिक नगरों के चित्रों के माध्यम से उस काल की नगर वास्तुकला के प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं ।
एलोरा, महाराष्ट्र, के कैलाश-मंदिर की शैल वास्तुकला (छठी सदी ई.पू.) – शैल से निर्मित विश्व की विशालतम मूर्तिकला, ऊपर से भूमितल तक की गयी कलाकृति,इस मंदिर संकुल का प्लिंथ, यूनान के ‘पार्थिनन से दोगुना है ।
भारतीय कारीगर सैद्धांतिक तौर पर, निर्माण सामग्री को संरचना स्थल पर नहीं, बल्कि इससे काफी दूर, प्रस्तर खान के स्थान पर तैयार करते थे। पत्थर को चट्टान काटने के से बाद वहीं पर उसके टेढ़े-मेढ़े हिस्से को तराश कर, उपयुक्त आकार व आकृति दी जाती थी । आवश्यकतानुसार, विभाजन रेखा की लम्बाई में एक खाँचा बनाया जाता था और इसके साथ-साथ कुछ दूरी पर छिद्र बनाये जाते थे। इस तरह बने छिद्रो में लकड़ी की फली ठोंक दी जाती थी। गीला करने पर लकड़ी फूल जाती और इस प्रकार से कट जाता था। वहाँ से खंड़ों को वांछित आकृति में तराश कर उन्हें मंदिर स्थल पर ले जाया जाता था। वहीं पर कारीगर इन तराशे हुये पत्थरों को क्रमबद्ध ढंग से लगाकर और जोड़ों के परिष्करण द्वारा पूरी संरचना को स्थापित करते थे।