विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र मे भारत का योगदान:भाग 23
विशेष माहिती श्रृंखला : भाग 23 (23-30)
लोह प्रौद्योगिकी और भारतीय विज्ञान
उत्खनन से प्राप्त लौह पदार्थों की रेडियो कार्बन आयु निर्धारण तकनीक से सिद्ध हुआ है कि भारत के अनेक भागों में, लौह प्रौद्योगिकी 1400 ई. पू. से ही ज्ञात थी।आरंभिक चरण (400-600 ई.पू.) में लौह का प्रयोग साधारण उपकरणों के लिये ही होता था । मध्य चरण (600-100 ई.पू.) में शिकार, कृषि व घर में प्रयुक्त नये व अधिक प्रभावी उपकरणों की बहुलता थी । अंतिम चरण(100 ई.पू.-600 ई.) लौह प्रौद्योगिकी में दिल्ली लौह-स्तंभ सहित कई सफलताओं का साक्षी है।
दिल्ली लौह स्तंभ
‘दिल्ली लौह-स्तंभ एक ऐसा कल्पनातीत निर्माण है जो आज भी हमें अप्रत्याशित लगता है । स्पष्ट है कि उस काल की हिंदू सभ्यता, फोर्ज वेल्डन द्वारा इतने विशाल स्तंभ का निर्माण करने में सक्षम थी । यूरोप में इतनी बड़ी संरचना बहुत समय बाद ही संभव हुई थी और प्रायः आज भी इस प्रकार का निर्माण कार्य आसान नहीं है । इससे भी बड़ी अचंभित करने वाली बात यह है कि लगभग पंद्रह सदियों तक खुली हवा व वर्षा में रहने के बावजूद यह जंग रहित है और स्तंभ- शीर्ष व इस पर उत्कीर्ण अभिलेख आज भी उतने ही स्पष्ट हैं जितने इसकी स्थापना के समय थे।
दक्षिण दिल्ली, मेहरोली, में स्थित लौह-स्तंभ को विश्व भर में प्राचीन भारत की अत्यंत प्रभावशाली प्रौद्योगिकीय उपलब्धि माना गया है। वास्तव में यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि यह जंगरहित चमत्कार लौह प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उस काल की अति उत्कृष्ट मानवीय सफलता है।
भूमि से ऊपर स्तंभ की लंबाई 6.7 मीटर है और भूमिगत भाग 0.5 मीटर है। यह शुंडाकार है। इसका आधार व्यास 420 मिमी. व शीर्ष व्यास 300 मिमी. है और इसका कुल भार 6 टन है । 1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ और ‘इंडियन इंस्टीटूयूट आफ मेटल्स’ की स्थापना की गयी तो इसी दिल्ली लौह-स्तंभ को इसके प्रतीक चिन्ह (emblem) के रूप में चुना गया।
ताम्र प्रौद्योगिकी
सिंधु घाटी सभ्यता के लोग भी ताम्र, उसके खनन, उत्पादन और उपयोग से परिचित थे । ताम्र पिंड प्राप्त करने हेतु, ताम्र-अयस्क का अपचयन खान के पास ही संपन्न किया जाता था । पुरातात्विक अध्ययन से पता चला है कि राजस्थान, उत्तर प्रदेश व बिहार में कई खनन व प्रगलन स्थल हैं। उनमें से कई 11 वीं शताब्दी ई.पू. के भी हैं।लोथल से प्राप्त कई अति शुद्ध (99.81%) ताम्र-पिंडों से यह बात स्पष्ट होती है कि लोथल के धातु शिल्पियों को धातु-शोधन प्रक्रिया का ज्ञान था । प्राचीन भारत में ताम्र धातुकीय शिल्पकला के तीन संकेत मिलते हैं।
1. हड़प्पा सभ्यता 2. भारतीय प्रायद्वीप में ताम्रप्रस्तर युग के अवशेष 3. पूर्वी भारत में ताम्रकोष
हड़प्पा निवासी ऐसे ताम्र-पात्रों का उपयोग करते थे जिनमें संधि, रनिंग आन व रिवेटन तकनीकी की आवश्यकता थी । इन पदार्थों के धातु चित्रण से पता चलता है कि उन्हें अतप्त कर्मण के बाद कास्टिंग, मंद शीतलन व अनीलन का ज्ञान था। मोहनजोदड़ों में, शायद दुनियां की सबसे पहली दांतों वाली आरियां मिली हैं । रांगा, सीसा व आर्सेनिक मिश्रधातुओं के रूप में प्राप्त हुए हैं।
ताम्र-प्रस्तर युग (2000-900 ई.पू ) में ताम्र प्रौद्योगिकी उज्जैन के पास वराहमिहिर के जन्म स्थान उज्जैन के पास कायथा में प्रचलित थी । तेज धार व मसूराकार परिक्षेत्र वाली उत्तम कुल्हाड़ियों की प्राप्ति से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यहां के लोगों ने ताम्र प्रौद्योगिकी में निपुणता प्राप्त कर रखी थी । इसमें यह तथ्य अत्यंत महत्वपूर्ण है कि ये सांचे में ढालकर बनायी गयी थीं । ताम्र-प्रस्तर काल का, नासिक अहमदनगर-पुणे, त्रिक्षेत्र ताम्र प्रौद्योगिकी में एक अन्य महत्वपूर्ण स्थान रहा है। प्रवर, घोड़ और, गोदावरी नदियों के किनारों पर संगमनेर, नेवासा, नासिक, चंदोली, ईनामगांव व दायमाबाद आदि क्षेत्रों में, यह तकनीकी पूर्णतः प्रचलित थी। यह प्रौद्योगिकी आद्य-ऐतिहासिक या प्रारंभिक कांस्य युग से संबंध रखती है।