विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र मे भारत का योगदान:भाग 25
विशेष माहिती श्रृंखला : भाग 25 (25-30)
जस्ता प्रौद्योगिकी और भारतीय विज्ञान
तक्षशिला से प्राप्त 34 34% जिंक वाला पीतल का पात्र इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि ई.पू. चौथी शताब्दी से पहले ही भारत में जिंक के प्रगलन तथा आसवन द्वारा जिंक प्राप्ति की तकनीकी का निकास हो चुका था ग्रीक पुस्तकों के संदर्भा से पता चलता है कि जिंक तकनीकी ई.पू. पाचवी या छठी शताब्दी में भारत से ग्रीस को पहुंची थी।
राजस्थान की जावार खाने, जिंक अयरक का मुख्य स्रोत थी। जावार में जस्ते का बड़े पैमाने पर उत्पादन तेरहवीं सदी में शुरू हुआ था। इस क्षेत्र की राजनीतिक अस्थिरता के कारण मेवाड़ के महाराणा (1780-1803 ई.) के काल में उत्पादन बंद हो गया।
1980 में, जावार क्षेत्र में किये गये पुरातात्विक अध्ययन से वहां पर शुद्ध जस्ते के बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिये प्रयुक्त आसवन उपकरण प्राप्त हुये हैं। जिंक निष्कर्षण अत्यंत जटिल है क्योंकि यह वाष्प के रूप में प्राप्त होता है जिसे नियंत्रित तापमान पर उचित अपचायी वातावरण में संघनित करना पड़ता है। जावार से प्राप्त जिंक उत्पादन तंत्र चित्र में दिखाया गया है। यह दो भागों से बना है। निचले भाग में जिंक वाष्प संघनन कोष्ट है और ऊपरी भाग में भट्टी है।
18 वीं सदी में पुनः भारत से जिंक तकनीकी पश्चिमी देशों में ले जायी गयी और इसे इंग्लैंड में विलियम चैंपियन ने पेटेंट करवाया। 1989 में ‘अमेरिकन सोसायटी आफ मेटला’ ने भारत की ज़िंक प्रौद्योगिकी को अंतर्राष्ट्रीय ऐतिहासिक पालिक घटना के रूप में मान्यता दी।
स्वर्ण एवं रजत प्रौद्योगिकी
प्राचीन भारत में सोने का प्रमुख स्रोत कई नदियों की स्वर्णयुक्त रेत में पायी जाने वाली, प्लेसर धातु थी। भारत के सभी भागों में स्वर्ण-धोवन विधि का प्रचलन था । हड़प्पा वासियों को भूमि से स्वर्ण पिंड खोजने का ज्ञान था । मोहनजोदड़ों व हड़प्पा का अधिकतर सोना चांदी की मिश्रधातु के रूप में है जिसमें चांदी की मात्रा काफी है । इस प्राकृतिक स्वर्ण रजत (40% ) मिश्रधातु को, संस्कृत में रजित-हिरण्यम् व अंग्रेजी में इलेक्ट्रम के नाम से जाना जाता है और यह कोलार स्वर्ण क्षेत्र में पायी जाती है।
असंख्य सूक्ष्म मनकों के अतिरिक्त, विभिन्न आकारों की सौ से भी अधिक स्वर्ण वस्तुएं लोथल से प्राप्त हुई हैं । लोथल व तक्षशिला से मिली पतली पर्णिकाओं व मनकों से इस बात के संकेत मिलते हैं कि उस समय धातु-चादर को पीटकर पतला करने की विधि ज्ञात थी स्वेदन, सोल्डरन व नियंत्रित तापन द्वारा जोड़ लगाये जाते थे। सोने की अंगूठियों में जोड़ लगाने के लिए ताम्र का उपयोग किया जाता था। कास्टन विधि का भी व्यापक रूप से प्रचलनथा ।
मोहनजोदड़ों में सोने की अपेक्षा चांदी का अधिक उपयोग होता था । चांदी का निष्कर्षण प्रमुख रूप से ‘आर्जेन्टिफैरस गैलीना’ (सीसे का अयस्क) से किया जाता था। तक्षशिला से जेवरों सहित 200 से अधिक वस्तुएं प्राप्त हुई हैं। इनका निर्माण प्रस्तर- सांचों अथवा ताम्र/कांस्य डाइयों में किया गया था ।
सीसा एवं रांगा प्रोद्योगिकी
हड़प्पा निवासी सीरो के अयस्क गेलीना (लेड सल्फाइड) व सेरूसाइट (लेड कार्बोनेट) तथा उनकी प्रगलन विधि से परिचित थे। सीसे के कम गलनांक तथा अयस्क के जल्दी अपचयन के कारण यह विधि सरल थी। सीसा आमतौर पर चांदी और कभी कभी तांबे के साथ पाया जाता है। मुख्यतःचांदी के साथ पाया जाने के कारण, सीसे का भारत के विभिन्न भागों में विस्तृत रूप से खनन किया जाता था। उच्च शुद्धता (99.54%) के सीसे की खोज से इस बात का पता लगता है कि सीसा-शोधन की विधियां उस समय प्रचलित थी। गुजरात के नागरा में दूसरी से चौथी सदी के सीसे के 45 सिक्के प्राप्त हुये थे।
कैसराइट के रूप में थोड़ी मात्रा में रांगा पश्चिमी भारत में और कुछ हद तक बिहार व उड़ीसा में पाया जाता है । कैसराइट आमतौर पर, जल-सांद्रित प्लेसर निक्षेप के रूप में पाया जाता है । इससे उत्पादित टिन को ‘सरित-टिन’ के नाम से जाना जाता है। प्राचीन भारतीयों ने शिरा निक्षेपों, जिनका खनन कठिन है, का उपयोग करने की बजाए सरित टिन के स्रोतों का उपयोग किया होगा । मोहनजोदड़ों में, टिन एक पृथक धातु के रूप में नहीं बल्कि केवल कांस्य में तांबे के साथ एक मिश्र धातु के रूप ज्ञात थी । सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों को सोल्डरन की जानकारी थी। इसके लिए शायद एक सामान्य टिन-लेड मिश्रधातु सोल्डर का उपयोग किया जाता था ।