विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र मे भारत का योगदान: भाग 29
विशेष माहिती श्रृंखला : भाग 29 (29-30)
भारतीय मुद्राविज्ञान का इतिहास
।। रूपं रूपं प्रतिरूपो बभुव तद् अस्य रूप प्रतिचक्षणाय ।
In all expressions of forms, He pervades, being visible everywhere.
प्रत्येक वस्तु एवं स्थान में वह स्वयं विद्यमान और प्रत्यक्ष है। इन प्रकरण में ई.पू. दसवीं शताब्दी से लेकर ब्रिटिश काल तक की लगभग 3000 वर्षों की भारतीय मुद्राओं के इतिहास का विवेचन किया गया है। मुद्राशास्त्रीय साक्ष्य इतिहास को समझने का एक सशक्त माध्यम है। उपलब्ध साहित्य से स्पष्ट होता है कि भारत में सिक्कों का प्रचलन लीडिया और चीन से, कम से कम एक शताब्दी पहले हुआ था। उप्पेदार (Stamped) सिक्कों का सर्वप्रथम वर्णन पाणिनि की ‘अष्टाध्यायी (आठवीं शताब्दी ई.पू.) में मिलता है। इसके अतिरिक्त भाराहुत स्तूप (दूसरी शताब्दी ई.पू.) और बोध गया के महाबोधि स्तूप (100ई.पू.) पर सिक्कों की आकृतियां भी पायी गयी हैं।
प्राचीन काल में धातु को कुसीबल में गला कर क्षार से शुद्ध किया जाता था। इस धातु को पीट कर चादरें बनाई जाती थी। चादरों को कर्तक द्वारा, छोटे टुकड़ों में काट कर उन पर पंच द्वारा वांछित चिन्हों का ठप्पा लगाया जाता था। कभी-कभी प्रगलित धातु से पेलेट बनाकर उन्हें चपटा किया जाता था।
इन प्राचीन सिक्कों पर एक से पांच तक ठप्पे मिलते हैं। इसी लिये इन्हें ‘आहत’ (Punch Marked) सिक्कों के नाम से जाना जाता है। पहले ये सिक्के देश भर में चलते थे। बाद में कोशल, अयोध्या, ऑडम्बर, योद्धेय कौशाम्बी, मगध, पंचाल, उज्जैन, कुलिंद, काशी, शिवि आदि राज्यों ने अपने सिक्के चलाये । दक्षिण भारत में सातवाहन वंश ने अपने सिक्के चलाये जिन पर राजा का नामअंकितथा।
ग्रीक, कुषाण और शकों के आक्रमण से भारतीय इतिहास में एक नया मोड़ आया। उन्होंने अपने सिक्के चलाये जो उत्तरी तथा उत्तरपश्चिमी भारत में प्रचलित हुये। चौथी शताब्दी में गुप्त वंश एक शक्तिशाली साम्राज्य के रूप में उभरा और उनके सिक्के अत्यंत उत्तम गुणवत्ता के थे। दसवीं शताब्दी के बाद दक्षिण भारत में चालुक्य, पल्लव, पंड्या और कदंब राजाओं ने अपने अपने सिक्के चलाये ।
मुसलमानों के आगमन के बाद दिल्ली, बंगाल, गुजरात, मालवा के सुल्तानों ने तथा मुगल बादशाहों ने नये सिक्के चलाये जो लिपि व प्रतिमा कला में पूर्व प्रचलित सिक्कों से भिन्न थे । अंत में, ब्रिटिश राज में मुद्रा प्रणाली में बड़ा परिवर्तन हुआ, यद्यपि उस काल में भारत के राजाओं ने भी अपने राज्यों में सिक्के चलाये । इस प्रकरण में लगभग 3000 वर्ष की अवधि में प्रचलित विभिन्न प्रकार के सिक्कों के इतिहास के माध्यम से हमारी समृद्ध विरासत का एक परिदृश्य प्रस्तुत किया गया है।
सम्राट चंद्रगुप्त प्रथम, कुमार गुप्त व स्कंद गुप्त ने राजा रानी किस्मों के सिक्के भी चलाये जिसमें दोनों शाही व्यक्ति आमने सामने थे । कुछ अन्य सिक्कों (समुद्र गुप्त व कुमार गुप्त प्रथम ) पर राजा को वीणा वादन करते दिखाया गया है । चंद्र गुप्त द्वितीय व कुमार गुप्त के सिक्कें में घुड़सवारी व शेर के शिकार को दिखाया गया है । समुद्र गुप्त व कुमार गुप्त द्वारा चलाये गये सिक्कों पर ‘अश्वमेध’ यज्ञ, मोर पर सवार कार्तिकेय, मकर पर सवार गंगा, शेर पर सवार दुर्गा तथा राजा को आशीर्वाद देते हुए चक्र पुरुष की सुंदर आकृतियां, मुद्राविज्ञान के माध्यम से कला प्रवीणता की अभिव्यक्ति के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
होयसाला विष्णुवर्धन (1115-1159 ई.) व नरसिंह (1159-1171 ई.) द्वारा डाई में बनायी गयी स्वर्ण मुद्राओं के प्रचलन का विवरण भी मिलता है। उत्तम चोल, पहला ऐसा चोल राजा था जिसने सोने व चांदी के सिक्कोंपर एक तरफ नागरी लिपि में अपना नाम खुदवाया था । उसके उत्तराधिकारी, राजराज प्रथम (985-1016 ई.) ने अपने सोने व चांदी के सिक्के चलवाये थे । ऐसे ही सिक्के राजेन्द्र चोल (1011-1043 ई.) ने भी अपने ही नाम श्री राजेंद्र एवं अपनी उपाधि ‘गंगईकोंड चोलन’ के अंकन के साथ जारी किये थे ।1336 ई. में विजयनगर राज्य की स्थापना के साथ, दक्षिण भारतीय मुद्रा में नये युग की शुरुआत हुई। अन्य दक्षिण भारतीय मुद्राओं के समान ही, विजय नगर के अधिकतर सिक्के स्वर्ण में बनाये गये थे ।