गरीबनवाज के दरिंदे वंशजों के’सामूहिक बलात्कार ड्रग्स-व्यापार और हत्याओं’से अजमेरशरीफ हलकान
( अजमेरशरीफ के बदमाश चिश्ती भाग ६)
अजमेर दरगाह अनुमान कमिटी के जॉइंट सेक्रेटरी मोसब्बिर हुसैन ने एक बार ‘इंडियन एक्सप्रेस’ से बात करते हुए कहा था कि ये हमारे शहर पर लगा एक बदनुमा धब्बा है।इस शहर पर ऐसा दाग लगानेवाले अजमेरशरीफ के खादिम थे। प्रभावशाली थे, अमीर थे और सफेदपोश थे।ये वही लोग थे, जिन पर सूफी फ़क़ीर कहे जाने वाले ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती दरगाह की देखरेख की जिम्मेदारी थी। ये वही लोग थे, जो ख़ुद को चिश्ती का वंशज मानते हैं। वो अपराधी नहीं दिखते थे, वो समाजसेवी के कलेवर में थे। कुल 8 लोगों के खिलाफ शुरुआत में मामला दर्ज किया गया था। इसके बाद जाँच हुई और 18 आरोपित निकले।
राजेश झा
साल 2020 में जब सुषमा ने पॉक्सो कोर्ट रूम में कदम रखा था तो उसके बयान से मुकरने के इतिहास और उसके मानसिक स्वास्थ्य से सम्बन्धी संघर्षों को देखते हुए किसी को उससे कोई खास उम्मीद नहीं थी। अपनी पहले की अदालती पेशियों में, उसने यौन उत्पीड़न की तस्वीरें और अन्य सबूत दिखाए जाने के बावजूद अपने बलात्कारियों को पहचानने से इनकार कर दिया था। वर्ष 2001 में, जब राजस्थान उच्च न्यायालय ने कैलाश सोनी और परवेज अंसारी को बरी कर दिया था, तो पीठ ने कहा कि वह अकेले ही अपीलकर्ताओं के खिलाफ अपराध को साबित कर सकती थी …’.परन्तु, इस बार, सुषमा आत्मविश्वास से भरी और आश्वस्त लग रही थी और उसने सीधे अपने सामने खड़े मर्दों की आंखों में देखा। जब उससे अपने बलात्कारियों की पहचान करने के लिए कहा गया, तो उसने एक-एक करके स्पष्ट और पुरे ज़ोर के साथ उनके नाम बताए: ‘नफ़ीस, जमीर, टार्ज़न…’
वह थोड़ी देर के लिए बस तभी झिझकी जब उसकी नज़र अगले चेहरे पर चली गई क्योंकि वह उसका नाम याद रखने में असमर्थ थी। फिर, उसने उसकी ओर इशारा किया और कहा: ‘ये भैया भी था जिन्होन रेप करा.’ उसके सामने वाला वह शख्स था सुहैल गनी, जिसने 2018 में आत्म-समर्पण कर दिया था। राठौड़ ने कहा कि अदालत के इस पल ने उनके रोंगटे खड़े कर दिए. वे कहते हैं, ‘उस दिन, उसने धमाका किया … 50 की आयु में भी, उसने अपने बलात्कारी को भैया के रूप में संबोधित किया. वह एक लाइन मेरे दिमाग में अटक गई है.’
एक के बाद एक को जोड़ कर चेन या श्रृंखला बनाई जाती है। मजहबी ठेकेदार के वेश में रह रहे दरिंदों ने यही तरीका अपनाया था। किसी युवती को अपने जाल में फँसाओ, उससे सम्बन्ध बनाओ, उसकी नग्न व आपत्तिजनक तस्वीरें ले लो, फिर उसका प्रयोग कर के उसकी किसी दोस्त को फाँसो, फिर उसके साथ ऐसा करो और फिर उसकी किसी दोस्त के साथ- यही उस गैंग का तरीका था।ओमेंद्र भारद्वाज तब अजमेर के डीआईजी थे, जो बाद में राजस्थान के डीजीपी भी बने। वो कहते हैं कि आरोपित वित्तीय रूप से इतने प्रभावशाली थे और सामाजिक रूप से ऐसी पहुँच रखते थे कि पीड़िताओं को बयान देने के लिए प्रेरित करना पुलिस के लिए एक चुनौती बन गया था।कोई भी पीड़िता आगे नहीं आना चाहती थी। उनका भी परिवार था, समाज था, जीवन था और ये लड़ाई उन्हें हाथी और चींटी जैसी लगती थी। केस लड़ने, आरोपितों के ख़िलाफ़ बयान देने और पुलिस-कचहरी के लफड़ों में पड़ने से अच्छा उन्होंने यही समझा कि चुप रहा जाए।
फरवरी 15, 2018। पुलिस ने इसी दिन इस केस के मुख्य आरोपित सुहैल गनी चिश्ती को गिरफ़्तार किया। इस ख़बर के बाद ही लोगों के बीच लगभग 3 दशक पहले की यादें ताज़ा हो गईं। अजमेर के लोग इस केस पर आज भी बात करने से हिचकिचाते हैं। आखिर बात करें भी तो क्या? ये वो केस है, जिसके बारे में वो समझते हैं कि इसने इस शहर को पूरी दुनिया में बदनाम कर के रख दिया। अजमेर दरगाह अनुमान कमिटी के जॉइंट सेक्रेटरी मोसब्बिर हुसैन ने एक बार ‘इंडियन एक्सप्रेस’ से बात करते हुए कहा था कि ये हमारे शहर पर लगा एक बदनुमा धब्बा है। संतोष गुप्ता ने इस केस का खुलासा अप्रैल 1992 को किया था। उन्होंने लड़कियों पर हुए अत्याचार की व्यथा को देश के सम्मुख रखा था।कौन लोग थे, जिन्होंने इस शहर पर ऐसा दाग लगाया था? ये यहीं के लोग थे, खादिम थे। प्रभावशाली थे, अमीर थे और सफेदपोश थे। वो अपराधी नहीं दिखते थे, वो समाजसेवी के कलेवर में थे। कुल 8 लोगों के खिलाफ शुरुआत में मामला दर्ज किया गया था। इसके बाद जाँच हुई और 18 आरोपित निकले।ये वही लोग थे, जिन पर सूफी फ़क़ीर कहे जाने वाले ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती दरगाह की देखरेख की जिम्मेदारी थी। ये वही लोग थे, जो ख़ुद को चिश्ती का वंशज मानते हैं। उन पर हाथ डालने से पहले प्रशासन को भी सोचना पड़ता। अंदरखाने में बाबुओं को ये बातें पता होने के बावजूद इस पर पर्दा पड़ा रहा।
इस रेप-कांड की शिकार अधिकतर स्कूल और कॉलेज जाने वाली लड़कियाँ थीं। लोग कहते हैं कि इनमें से अधिकतर ने तो आत्महत्या कर ली। जब ये केस सामने आया था, तब अजमेर कई दिनों तक बन्द रहा था। लोग सड़क पर उतर गए थे और प्रदर्शन चालू हो गए थे। जानी हुई बात है कि आरोपितों में से अधिकतर समुदाय विशेष से थे और पीड़िताओं में सामान्यतः हिन्दू ही थीं।28 साल से केस चल रहा है। कई पीड़िताएँ अपने बयानों से भी मुकर गईं। कइयों की शादी हुई, बच्चे हुए, बच्चों के बच्चे हुए। 30 साल में आखिर क्या नहीं बदल जाता? हमारी सामाजिक संरचना को देखते हुए शायद ही ऐसा कहीं होता है कि कोई महिला अपने बेटे और गोद में पोते को रख कर 30 साल पहले ख़ुद पर हुए यूँ जुर्म की लड़ाई लड़ने के लिए अदालतों का चक्कर लगाए। शायद उन महिलाओं ने भी इस जुल्म को भूत मान कर नियति के आगोश में जाकर अपनी ज़िंदगी को जीना सीख लिया है और उनमें से अधिकतर अपने हँसते-खेलते परिवारों के बीच 30 साल पुरानी दास्तान को याद भी नहीं करना चाहतीं।