अंग्रेजी माध्यम से शिक्षित हिन्दू की निष्ठां उसके धर्म के प्रति नहीं रहती: मैकाले
हिंदुओं के ईसाईकरण करने की अंग्रेजों की योजना का जनक था चार्ल्स ग्रांट
वर्ष १७५७ में ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’का बंगाल में राज्य स्थापित होने के बाद १८ वीं शताब्दी के अंत में चार्ल्स ग्रांट नामक अंग्रेज ने ‘हिंदुस्थान में ईसाई धर्म का प्रचार किस प्रकार किया जा सकता है’, इस विषय में आलेख ब्रिटिश संसद में विलियम विल्बरफोर्स, कुछ अन्य सांसद और कैन्टरबरी के आर्चबिशप के पास भेजा । चार्ल्स ग्रांट के इस प्रस्ताव पर ब्रिटिश संसद में निरंतर आठ दिन चर्चा होनेके उपरांत ईसाई मिशनरियों को मत -प्रसार की अनुमति दी गई ।‘१८५७ के पूर्व हिंदुस्थान में ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’के शासनकाल में मिशनरियों द्वारा बलपूर्वक हिंदुओं का धर्मांतरण किया गया ।’
वर्ष १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम के बाद ईसाई मिशनरी और ब्रिटिश साम्राज्य में हिंदुओं के धर्मांतरण के विषय में एकमत हुआ !‘१८५७ के स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात् ईसाई मिशनरी और ब्रिटिश साम्राज्य का संबंध अधिक दृढ हुआ । वर्ष १८५९ में लॉर्ड पामरस्टन ने वैâन्टरबरी के आर्चबिशप से कहा था ‘भारतमें ईसाई रिलिजन का प्रचार हम जितना शीघ कर पाएंगे, हमारे साम्राज्यके लिए हितकर होगा’ ।स्वामी देवगिरि महाराज बताते हैं कि धूर्त अंग्रेजों ने अपने शासनकाल में सत्ता, शिक्षा और सेवाके माध्यमों से ईसाई रेलिजन का प्रचार कर लोगों को ईसाई बनाने का प्रयास किया ।’
अंग्रेजोंने हिंदुस्थान में पैर जमाने के पश्चात् ‘हिंदुस्थानी लोगोंको किस भाषामें शिक्षा दी जाए’, इस संबंधमें विचार आरंभ किया । उस समय ब्रिटिश शिक्षाविद् लॉर्ड मैकाले ने अपने कट्टर ईसाई मतावलम्बी और मत -प्रचारक पिताको पत्र लिखकर बताया, ‘अंग्रेजी भाषा में शिक्षा पानेवाला हिंदु कभी भी अपने धर्म से एकनिष्ठ नहीं रहता । ऐसे अहिंदु आगे चलकर ‘हिंदु धर्म किस प्रकार निकृष्ट है तथा ईसाई धर्म किस प्रकार श्रेष्ठ है’, इसका दृढतापूर्वक प्रचार करते हैं एवं उनमें से कुछ लोग ईसाई धर्म अपनाते हैं
गांधी जीवन भर ईसाई मिशनरियों द्वारा सेवा कार्यों के नाम पर किए जाने वाले धर्म परिवर्तन के विरुद्ध रहे। जब अंग्रेज़ भारत से जाने लगे तो ईसाई मिशनरी लॉबी ने प्रश्न उठाया कि स्वतंत्र भारत में क्या उन्हें धर्म परिवर्तन करते रहने दिया जाएगा, तो गांधी जी ने इसका जवाब न में दिया। उनके अनुसार लोभ-लालच के बल पर धर्म परिवर्तन करना घोर अनैतिक है। इस पर मिशनरी लॉबी ने बहुत हंगामा किया। स्वतंत्रता के समय भारत आर्थिक रूप से संपन्न देश नहीं था और वित्तीय सहायता के लिए पाश्चात्य ईसाई देशों और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों पर निर्भर था, इसलिए भारत को मिशनरियों के आगे झुकना पड़ा। उसके बाद सरकार मिशनरी लॉबी के सामने और मजबूर होती गई।