हम क्यों भूल जाते हैं कि सिख हिन्दुओं से ही आए हैं?
-तरलोचन सिंह अध्यक्ष, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग
बहुत समय से सिख भाईचारे के सन्दर्भ में कोई -न- कोई चर्चा कई बुद्धिजीवियों द्वारा आरम्भ की जाती है जो कभी-कभी मुझे बहुत विचित्र लगती है। कई बार सोचता हूं कि 500 वर्ष से चली आ रही परम्परा में बदलाव क्या आवश्यक है? 1708 ई. में दशम गुरु गोविन्द सिंह जी ने गुरु ग्रंथ साहिब को “शब्द गुरु” का स्थान दिया और गुरु ग्रंथ साहिब में अंकित वाणी को हमने अपना इष्ट माना है। फिर हम क्यों कोई -न- कोई नई बात लेकर अपनी कौम को दुविधा में डालना चाहते हैं।
खालसा पंथ के सृजन के पश्चात “नित नेम” की प्रथा चली आ रही है। हर सिख घर में “नित नेम” के “गुटखे” (छोटी किताब रूपक वाणी संग्रह) मिलते हैं जिसका नियमित रूप से प्रतिदिन पाठ किया जाता है। दुख की बात है कि कई विद्वान् इन वाणियों पर भी “किन्तु-कैसे” जैसे प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं। अब एक और नया विषय “अरदास” के बारे में चला दिया गया है। “अरदास” हमारी मर्यादा का एक अटूट हिस्सा है और हरिमंदिर साहिब, अमृतसर और सभी गुरुद्वारों में नियमित रूप से होता चला आ रहा है, और अब इसे भी टिप्पणी का मुद्दा बनाया जा रहा है। एक सिख पत्रिका ने अरदास की प्रथम पंक्ति “प्रथम भगऔति सिमर कै” को बदल देने की मांग के साथ इसी पत्रिका में “देह शिवा वर मोहि इहै” शब्द पर भी आलोचनायुक्त टिप्पणी की है। वस्तुत: यह शब्द एक विनती एवं वीरता का प्रभाव चिन्ह है जो कि हर सिख पाठशाला, कालेज तथा सिख सेना और समुदाय में हर प्रकार के कार्यों के शुभारंभ के लिए गाया जाता है।
किसी भी राष्ट्रीयगान की तरह इस शब्द की मान्यता है। दशम ग्रंथ के विरुद्ध तो बहुत अरसे से प्रचार चल रहा है और इसके विरुद्ध तो किताबें भी छपी हैं। एक और शब्द “मितर प्यारे नूं हाल मुरीदा दा कहणा” जिसे आज तक हम गुरू गोविन्द सिंह की रचना मान कर गान करते आ रहे हैं उस पर भी कई प्रकार के संवाद बनाए जा रहे हैं और अनेक प्रकार के प्रश्न सदियों से चली आ रही परम्पराओं पर लग रहे हैं जैसे कि “सूरज प्रकाश” की कथा। इस कथा का व्याख्यान हर गुरुद्वारे में नियमित रूप से प्रतिदिन होता आ रहा है। इसकी रचना भाई संतोख सिंह ने की थी। सभी विद्वान इसकी व्याख्या करते आ रहे हैं। मैं भी पटियाला दुख निवारन साहिब, गुरुद्वारे में इसे सुनने जाता था।
इस प्रकार के व्यर्थ विषय को छेड़ने अथवा इन पर संवाद-विवाद करके हम अपनी किस प्रकार की भावनाओं का प्रदर्शन कर रहे हैं- वास्तव में सिख समाज को समझने की जरूरत है। कई सालों से ये नुक्ता-चीनी करने वाले लोग इस भावना को मुखर रूप से व्यक्त कर रहे हैं कि सिखों का हिन्दू समाज के साथ कोई सम्बन्ध न रह जाए। यह समझते हैं कि सिखों की अलग पहचान और अलग पंथ कायम रखने के लिए ऐसे प्रयास करने जरूरी हैं। आलोचक अथवा स्वयं को बुद्धिजीवी कहने वालों के अनुसार “अरदास” में “भगऔति” शब्द का प्रयोग हिन्दू धर्म में “देवी” कही जाने वाली “भगवती” का प्रतीक है। देवी पूजा सिख धर्म में वर्जित है। सिख धर्म के सुप्रसिद्ध कथावाचक संत सिंह मस्कीन जी भगवती का अर्थ “शक्ति” बताते हैं।
300 वर्षों से चली आ रही अरदास पर कभी भी कोई आलोचना नहीं हुई और अब हम कैसे अपनी इच्छा से शब्दार्थ बदल सकते हैं? इसी प्रकार “देह शिवा वर मोहि” में शब्द-“शिवा” के शब्दार्थ इन बुद्धिजीवियों के अनुसार “शिवजी” हैं, जो हिन्दू धर्म के अनुसार त्रिदेवों में एक हैं। गुरु ग्रंथ साहिब में अधिकतर ऐसे नाम आते हैं, जिनको हिन्दू पवित्र और पूज्य मानते हैं। गुरु ग्रंथ साहिब एक विशाल रचना है जिसमें गुरुजनों और भक्तजनों की रचनाएं मौजूद हैं। यह पंथ, जाति, ऊंच-नीच के भेदभाव से बहुत ऊपर है, इसमें केवल एक ही “परमात्मा” को आधार माना है, जिसे हम अलग-अलग कई नामों से पुकारते हैं। यदि गुरुजनों ने अपने लेखन तथा वाणी उच्चारण में पंथ-जाति का भेदभाव नहीं किया तो हमें टिप्पणी, वाद-विवाद का हक किसने दिया? यह वाद-विवाद सिख पंथ के अन्दर भी फूट डाल सकते हैं।
सिख पंथ , जो कि भारतवर्ष का एक अटूट एवं अहम हिस्सा है, हर प्रकार से सामाजिक तथा ऐतिहासिक दृष्टि से भारत की संस्कृति से जुड़ा हुआ है। हमारे पूर्वज भी भारतीय ही थे। क्या भारत की हजारों साल पुरानी विरासत हमारी नहीं है? यह नया विवाद हमारे रिश्तों में दरार डाल सकता है। यहूदी, ईसाई, मुसलमान सब अपने को एक ही पिता की संतान मानते हैं और उनका इस बात से कभी इन्कार नहीं हुआ। प्रत्येक अपने पंथ को अलग मानता है पर वे अपनी विरासत को एक ही मानते हैं।
भारत में सिख धर्म की नींव गुरु नानक ने रखी और दशम गुरु गोविन्द सिंह जी ने इसको नया रूप दिया। अनेक प्रकार की सामाजिक व धार्मिक कुरीतियों का खण्डन करके उन्होंने “खालसा” पंथ का मार्ग सजाया। हम यह क्यों भूल जाते हैं कि सिख हिन्दुओं से ही आए हैं। मुझे अपने सिख होने पर तथा अपनी सिख परम्पराओं पर गर्व है। पर हमारी जो परम्परा हिन्दू धर्म से जुड़ी है, उन्हें तोड़कर हम क्या साबित करना चाहते हैं? हमने आज तक नहीं सुना कि किसी सिख को किसी हिन्दू ने जबरदस्ती हिन्दू बनाने का प्रयत्न किया है। मुझे लगता है कि सिखों का कोई एक वर्ग ऐसा है जो सिखों के मन में यह शंका पैदा कर रहा है और यह साबित करना चाहता है कि हमें हिन्दू धर्म से खतरा है। इस वजह से वह दोनों धर्मों में दूरी पैदा कर सकता है।
सोचने की बात है कि हिन्दू हमारा क्या बिगाड़ रहे हैं? कितने सिख हिन्दू प्रभाव से धर्म छोड़ रहे हैं? क्या इस बात का कोई उदाहरण दे सकता है? अपनी सोच को सीमित दायरे से निकालकर सोचें कि यदि कोई कहे कि सिख हिन्दुओं से बने हैं या हिन्दू सिख आपस में भाई हैं तो हमारा क्या बिगड़ सकता है। मुझे बहुत सारे हिन्दू धर्म गुरुओं तथा नेताओं से मिलने का अवसर मिलता रहा है और वह हमेशा सिखों को बहुत आदर व सम्मान देते रहे हैं। वे मानते हैं कि सिखों ने हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए अनेक कुर्बानियां दीं, तो क्या छोटे-मोटे बहाने लेकर विवाद करना अच्छी बात है? सिखों की ओर बड़े-बड़े खतरे बढ़ रहे हैं, जिनकी तरफ ध्यान देना जरूरी है। हमारी समस्या है-नई पीढ़ी का पतित होना, नशे करना, नई बीमारियां, बेरोजगारी, गिरती शैक्षिक अवस्था आदि। इन समस्याओं का हल हमें ढूंढना है। कौम की भटक रही युवा पीढ़ी के लिए सही रास्ता ढूंढना हम सबका कर्तव्य है। मेरी अपील है कि अपने राजसी लाभ के लिए या अपना नाम समाचार पत्रों में देखने के लिए देश तथा कौम की हानि न होने दें। हमारे गुरु का तो बस यही संदेश है-
“सब का मीत हम आपन कीना , हम सभना के साजन” अर्थात्- सबको मित्र बनाओ तथा सबके मित्र बनो।