पुनः’देवगिरि’ नाम होने का अर्थ
मुहम्मद बिन तुग़लक़ द्वारा बलपूर्वक १३१८ में दिये नाम ‘दौलताबाद’ से मुक्त हो अपना पुराना नाम पाने में यादवों की राजधानी ‘देवगिरि’ को लगभग ७०४ वर्ष लग गए। केंद्र की राष्ट्रवादी सरकार के पदचिन्हों पर चलते हुए महाराष्ट्र के पर्यटन मंत्री ने इसके मौलिक नाम को चलन में लाने की घोषणा पिछले सप्ताह की।संकेत हैं कि देश की राष्ट्रवादी सरकार पराजय और दासता के सूचक ऐसे सभी नामों को बदल देगी। हाल ही में औरंगाबाद और उस्मानाबाद शहरों के नाम बदलकर क्रमश: छत्रपति संभाजी नगर और धाराशिव रख दिए हैं।
१२ वीं सदी के उत्तरार्ध में यादव वंश के राजा भिल्लम द्वारा स्थापित यह शहर मध्य काल में एक एक विशाल चट्टानी परिदृश्य वाला अपराजेय दुर्ग एवं महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक केंद्र था जिसे कभी सैन्यशक्ति के बल पर नहीं जीता जा सका बल्कि षड्यंत्रों के द्वारा ही इस पर अधिकार जमाया गया ।१४ वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में दिल्ली की मुस्लिम सल्तनत के अधीन आने तक यह शहर हिन्दू यादव वंश की राजधानी था।१७ वीं शताब्दी में मुग़लों द्वारा दक्कन में औरंगाबाद के समीप अपना प्रशासनिक मुख्यालय स्थापित करने के साथ ही इसका पतन हो गया।इस नगर ने इतिहास में बहुत बार उत्थान और पतन देखा। यह १३१८ ई. तक यादवों की राजधानी रहा, १२९४ ई. में अलाउद्दीन ख़िलजी ने इसे लूटा। बाद में ख़िलजी की फ़ौजों ने दुबारा १३१८ ई. में यादव राजा हरपाल देव को पराजित कर मार डाला। उसकी मृत्यु के साथ ही यादव वंश का अंत हो गया।
सुल्तान मुहम्मद बिन तुग़लक़ गद्दी पर बैठा, उसे देवगिरी की केन्द्रीय स्थिति बहुत पसंद आयी। उस समय मुहम्मद तुग़लक़ का शासन पंजाब से बंगाल तक तथा हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक फैला हुआ था।उसने दिल्ली से अपनी राजधानी देवगिरि में शिफ्ट करने के साथ ही इसका नाम ‘दौलताबाद’ कर दिया। हालाँकि इस स्थानांतरण से लाभ कुछ नहीं हुआ, उल्टे परेशानियाँ बढ़ गयीं। फलत: राजधानी पुन: दिल्ली ले आयी गई। लेकिन इससे दौलताबाद का महत्त्व नहीं घटा। दक्षिण में जब बहमनी राज्य टूटा, तब अहमदनगर राज्य में दौलताबाद का गढ़ अत्यंत शक्तिशाली माना जाता रहा। १६३१ ई. में सम्राट शाहजहाँ ने क़िलेदार फतेह ख़ाँ को घूस देकर इस गढ़ पर क़ब्ज़ा कर लिया ।
मुग़ल शासन के अंतर्गत भी दौलताबाद प्रशासन का मुख्य केन्द्र बना रहा इसी नगर से औरंगज़ेब ने अपने दक्षिणी अभियानों का आयोजन शुरू किया। औरंगज़ेब के आदेश से गोलकुण्डा का अंतिम शासक अब्दुल हसन दौलताबाद के ही गढ़ में कैद किया गया था। १७०७ ई. में बुरहानपुर में औरंगज़ेब की मृत्यु होने पर उसके शव को दौलताबाद में ही दफनाया गया।१७६० ई. में यह नगर मराठों के अधिकार में आ गया, लेकिन इसका पुराना नाम देवगिरि पुन: प्रचलित न हो सका।
देवगिरि का यादव कालीन दुर्ग एक त्रिकोण पहाड़ी पर स्थित है। क़िले की ऊँचाई, आधार से १५० फुट है। पहाड़ी समुद्र तल से २२५० फुट ऊँची है। क़िले की बाहरी दीवार का घेरा 2¾ मील है और इस दीवार तथा क़िले के आधार के बीच क़िलाबेदियों की तीन पंक्तियां हैं। प्राचीन देवगिरि नगरी इसी परकोटे के भीतर बसी हुई थी। किन्तु उसके स्थान पर अब केवल एक गांव नजर आता है। क़िले के कुल आठ फाटक हैं। दीवारों पर कहीं-कहीं आज भी पुरानी तोपों के अवशेष पड़े हुए हैं। इस दुर्ग में एक अंधेरा भूमिगत मार्ग भी है, जिसे ‘अंधेरी’ कहते हैं।
इस मार्ग में कहीं-कहीं पर गहरे गढ़डे भी हैं, जो शत्रु को धोखे से गहरी खाई में गिराने के लिए बनाये गये थे। मार्ग के प्रवेश द्वार पर लोहे की बड़ी अंगीठियाँ बनी हैं, जिनमें आक्रमणकारियों को बाहर ही रोकने के लिए आग सुलगा कर धुआं किया जाता था। क़िले की पहाड़ी में कुछ अपूर्ण गुफ़ाएं भी हैं, जो एलोरा की गुफ़ाओं के समकालीन बतायी जाती हैं।वैसे वर्ष १७६० में मराठा साम्राज्य का अंग यह स्थान बन गया था किन्तु मराठा शासकों ने दौलताबाद नाम से छेड़छाड़ नहीं की।
१५ अगस्त १९४७ को देश स्वाधीन हुआ और अब हमें ‘स्व’ का परिचय मिलना प्रारम्भ हुआ है। हम इसका स्वागत करते हैं।