हुतात्मा नाग्या कातकरी
वन – कानून १९२७ का अहिंसक विरोध करते हुतात्मा हो गए सत्याग्रही नाग्या महादु कातकारी
‘जंगल अधिनियम १९२७ ‘ के विरुद्ध वनवासियों द्वारा चलाए गए आंदोलन में बलिदान देनेवाले महान हुतात्माओं में २१ वर्षीय नाग्या कातकरी(nagya katkari) का नाम बहुत आदर से लिया जाता है। वे वनवासियों की उस उपजाति ‘कातकरी’ समुदाय से आते हैं जिनका जीवन वनों पर आश्रित और उसकी परिधि में ही सीमित था । यह जनजाति मुख्यतः महाराष्ट्र और आंशिकतः गुजरात ,कर्नाटक और छत्तीसगढ़ क्षेत्रों में पायी जाती है।
अंग्रेजों ने वनवासियों को नियंत्रण में लेने के लिए तीन बार जंगल कानून बनाया और अनेक प्रयत्न किये किन्तु उसे वनवासियों को अपने अधीन लाने में सफलता नहीं मिली। उनके प्रयासों का फल इतना ही रहा कि वे वनवासियों और नागरिकों -ग्रामीणों के बीच वह सम्बन्ध नहीं रहा जिसका वर्णन रामायणकालीन – महाभारतकालीन साहित्यों में मिलता है। लेकिन वे चाह कर भी उसे इतना नहीं बिखेर सके कि दोनों समाज एक -दूसरे से प्रेरणा नहीं ले। जंगल कानून का विरोध और नमक कानून का उल्लघन करनेवाले क्रांतिवीरों का एक -दूसरे से प्रेरित होना इसका अन्यतम उदाहरण है जिसकी परिणति नाग्या कातकरी और डॉ केशव बलिराम हेडगेवार का एक ही काल खंड में अपने ध्येयों को लेकर अपने – अपने कर्मक्षेत्र का सूर्य बन जाना है।
कतकारी समुदाय के लोग अपनी रोज़ी रोटी के लिए कत्थे का व्यापार , लकड़ी और जंगल से निकले हुए अन्य उत्पाद , मछली पकड़ना , और ज़ूम खेती पर निर्भर थे । कातकरी नाम का उद्भव वन-आधारित गतिविधि से हुआ है, खैर (बबूल) के पेड़ से कतेचू (Catechu) बनाना या बेचना उनके मुख्य धंधे थे ।कतेचू (Catechu) बबूल के पेड़ों का एक अर्क है जिसे विभिन्न प्रकार के खाद्य योज्य पदार्थों, डाई आदि के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। कतेचू (Catechu) बबूल की लकड़ी को उबालकर निकाला जाता है और उसके परिणामस्वरूप काढ़ा बनाया जाता है। अंग्रेजों द्वारा वन अधिनियमों द्वारा लगातार उनके काम धंधों को बाधित किया जाता था। अंततः अंग्रेजों ने जंगल कानून १९२७ द्वारा उनका जीवन दूभर कर दिया तो ये वनवासी संघर्ष की राह पर विवश होकर आए जिसमें क्रूर अंग्रेजी सरकार ने अहिंसक वनवासियों पर अंधाधुंध गोलीबारी करके आठ लोगों को बुरी तरह घायल कर दिया जिनमें नाग्या कातकरी एक थे। अंग्रेजों की गोली से घायल नाग्या वनौषधि से अपना उपचार कराते रहे और अपने शेष छह महीनों के जीवन में उन्होने स्वतंत्रता और स्वाधिकार के लिए सतत संघर्ष करने की प्रेरणा युवाओं को दी।
अंग्रेजों ने वर्ष १८६५ में वन अधिनियम लागू करने के बाद, इसमें दो बार (वर्ष १८७८ और वर्ष १९२७ ) संशोधन किया था। भारतीय वन अधिनियम, १८६४ में स्थापित इम्पीरियल फ़ॉरेस्ट डिपार्टमेंट ने विभिन्न वनमंडलों द्वारा वनों पर ब्रिटिश नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास किया।इसने ब्रिटिश सरकार को वृक्षों से आच्छादित किसी भी भूमि को सरकारी जंगल घोषित करने और उसके प्रबंधन के लिये नियम बनाने का अधिकार दिया।ब्रिटिश प्रशासन द्वारा कातकरी वनवासियों को आपराधिक जनजाति अधिनियम – १८७१ के अंतर्गत वर्गीकृत किया था।भारतीय वन अधिनियम, १८७८ द्वारा ब्रिटिश प्रशासन ने सभी बंजर भूमि की संप्रभुता हासिल कर ली जिसमें परिभाषित वन भी शामिल थे।इस अधिनियम ने प्रशासन को आरक्षित और संरक्षित वनों का सीमांकन करने में भी सक्षम बनाया। संरक्षित वनों के मामले में स्थानीय लोगों के अधिकारों को वापस ले लिया गया था, जबकि कुछ विशेषाधिकार जो सरकार द्वारा स्थानीय लोगों को दिए गए थे, जिन्हें कभी भी वापस लिया जा सकता है।
इस अधिनियम ने वनों को तीन श्रेणियों- आरक्षित वनों, संरक्षित वनों और ग्राम वनों में वर्गीकृत किया। इसने वनवासियों द्वारा वनोपज के संग्रहण को विनियमित करने का प्रयास किया और इस नीति में वनों पर राज्य नियंत्रण स्थापित करने के लिये अपराध और कारावास तथा जुर्माने के रूप में घोषित कुछ गतिविधियाँ लागू की गईं। भारतीय वन अधिनियम, १९२७ मोटे तौर पर पिछले भारतीय वन अधिनियम के आधार पर तैयार किया गया था जो कि ब्रिटिश काल के दौरान कार्यान्वित था। यह उन प्रक्रियाओं को परिभाषित करता है जो किसी क्षेत्र को सुरक्षित वन, संरक्षित वन या ग्राम वन घोषित करती हो। यह जंगल अपराध को परिभाषित करता है, तथा एक आरक्षित वन के अंदर अनेक कामों को निषिद्ध कृत्यों के अंतर्गत सूचीबद्ध करती थी ।
सन १९२७ का जंगल कानून वनवासियों और किसानों के लिए, अत्यधिक मारक था। इस कानून से पूर्व ईंधन हेतु लकड़ी काटने और चारे पर कोई प्रतिबंध या कर नहीं था, पर जंगल वृद्धि और सुरक्षा के नाम पर आरम्भ हुए सरकारी नियंत्रण से परिस्थिति बदल गई। किसानों के हितों की उपेक्षा कर सरकारी तिजोरी भरने के विभागीय प्रयास आरंभ हुए। जानवरों हेतु चारा महंगा और दुर्लभ होने से किसान त्राहि -त्राहि करने लगे । इस अन्याय के विरोध में लोगों ने सरकार से आपत्ति व्यक्त कीं। दिसंबर १९२९ के लाहौर अधिवेशन में केंद्रीय और प्रांतीय विधि मंडलों तथा सरकारी समितियों के बहिष्कार की घोषणा करते हुए सविनय अवज्ञा कार्यक्रम की घोषणा की। उस घोषणा में कहा गया, “हमारे लोगों से मिलने वाला ‘कर’ हमारे उत्पादन की तुलना में ज्यादा है। हमारा प्रतिदिन औसतन उत्पादन सात पैसे है, जबकि हमारे द्वारा जमा किए जाने वाले करों का बीस प्रतिशत हिस्सा सिर्फ किसानों से आता है। गरीबों पर सर्वाधिक मार करने वाले नमक पर लगने वाले कर से तीन प्रतिशत हिस्सा आता है।” (आर. सी. मजूमदार, हिस्ट्री ऑफ फ्रीडम मूवमेंट इन इंडिया, खंड 3, पृ. 331)।
वन अधिनियम १९२७ के विरुद्ध भी परिषदों में प्रस्ताव पास कर सरकार को भेजे गए । काउंसिलों से भी प्रतिनिधियों ने इसके विरुद्ध आवाज उठाई, पर कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकला तब प्रतिबंध की अवज्ञा करने के सिवा कोई दूसरा उपाय नहीं बचा था। इसलिए माधव श्रीहरि उपाख्य बापूजी अणे के नेतृत्व में बरार युद्ध मंडल ने जंगल प्रतिबंध भंग करने का निश्चय किया। इसका मुख्य ध्येय जंगल की घास बिना अनुमति काटना था। इसके लिए यवतमाल जिले का पुसद क्षेत्र और शुरुआत के लिए 10 जुलाई, 1930 का दिन निश्चित किया गया ।
जंगल सत्याग्रह में विचारपूर्वक सहभागी होने के अपने निर्णय की सूचना अप्पाजी ने फरवरी 1930 में डॉ. हेडगेवार को पत्र लिख कर दी। इसके उत्तर में डॉ. हेडगेवार ने कहा कि संघ का प्रशिक्षण वर्ग समाप्त होने के बाद इस बारे में सोचा जाएगा। वर्ग समाप्ति के बाद अप्पाजी ने पुनः पूछा। अप्पाजी के स्वास्थ्य का हवाला देते हुए डॉ. हेडगेवार ने तुरंत स्वीकृति नहीं दी। हालाँकि अप्पाजी द्वारा पुनः पत्र लिखने पर डॉक्टरजी स्वीकृति दे दी। दोनों ने मिलकर सत्याग्रह करने का विचार किया(संघ अभिलेखागार, हेडगेवार प्रलेख, नाना पालकर के नोट्स ) ।
डॉ हेडगेवार एवं अन्य सत्याग्रहियों की जंगल कानून के उलंघन के लिए हुई गिरफ्तारियों तथा उनके जगह -जगह हुए सम्मान कार्यक्रमों से जंगल कानून १९२७ के विरुद्ध वातावरण बना और इसके सन्देश सुदूर वनांचलों तक पहुंचे जिससे नाग्या कातकरी जैसे वीरों को अपने अधिकारों की रक्षा के लिए एकजुट होकर संघर्ष करने की प्रेरणा मिली। पनवेल तहसील और चिरनेर के दो हज़ार वनवासियों ने बाबूराव आप्टे के नेतृत्व में जंगल की पूजा तथा सत्याग्रह को जारी रखने का निर्णय लिया। उसी क्रम में चिरनेर में २५ सितंबर को जागरण की योजना बनाई गयी तथा सारे समाज ने गणेश मंदिर में कुल्हाड़ी – गोईता आदि लेकर इकठ्ठा होने का निर्णय लिया ।
इस सत्याग्रह की तैयारी पांच -छह दिन पहले से की जा रही थी। २० सितंबर को एना पोवले की अध्यक्षता में चिरनेर के श्री राम मंदिर में सभा हुई थी उसमें जंगल कानून के विरुद्ध असहयोग आंदोलन का निर्णय लिया गया था और कहा गया था कि सभी सत्याग्रही कुल्हाड़ी और गोइता लेकर जाएंगे तथा कत्था की लकड़ियां काटकर जंगल कानून का विरोध करेंगे। २४ सितंबर को १९३० कोप्रोली के मंदिर में हुई बैठक में अप्पा साहेब वेदक ने यह सत्याग्रह अहिंसक रखने का आदेश दिया था। ये साड़ी सूचनाएं नाग्या कातकारी तक भी पहुंची। वे अपने साथियों बाळू खारपाटील, धनाजी जोमा म्हात्रे, बारकू अंबाजी चिर्लेकर, माया कानू पाटील, राघो माया मोकल, तुकाराम विठू मोकल, पांडू देऊ कुंभार एवं बाळाराम रामजी ठाकूर के साथ दूसरे दिन जंगल कानून का विरोध करते हुए कत्थे की लकड़ियां और घास काटने जंगल में घुस गए।
जंगल सत्याग्रह के कारण ५००० वनवासियों ने शांतिपूर्ण तरीके से असहयोग आंदोलन करते हुए कत्थे की लकड़ियां और घास काटना शुरू किया जिसपर अंग्रेजी सरकार के पुलिस इंस्पेक्टर दौलतराव पाटिल ने अपने अधिकारों का दुरूपयोग करते हुए अंधाधुंध गोलियां चलवायीं।उस गोलाबारी में परशुराम बुधा जी घरत,नाग्या महादु कातकरी,नानाभाई लक्ष्मण बोडे ,माया भोईर और चांगा राधो पाटिल को पुलिस कर्मचारियों की गोलियां लगीं। सभी घायलों को उनके सम्बन्धी उठा ले गए लेकिन २१ वर्षीय नाग्या वहीँ पड़े रहे।
नाग्या की बड़ी बहन उनको ढूँढ़ते हुए आयी और वनौषधियों से नाग्या ने अपने घायल पैर की चिकित्सा शुरू की। उनके पिता महादु ने वृद्धावस्था के बाद भी उनको उठाकर घर ले गए। लगभग छह महीने तक बीमार रहने के बाद नाग्या ने संसार त्याग दिया। महाराष्ट्र विधानसभा ने १९९८ में रायगढ़ के हुतात्मा नाग्या महादु कातकरी का नाम स्वतंत्रता सेनानियों की सूची में जोड़ने का प्रस्ताव स्वीकारने के बाद भी २००२ तक वह काम पूरा नहीं किया था जिससे पेन -पनवेल -उरन तालुका के हज़ारों वनवासियों में असंतोष व्याप्त था । नाग्या को हुतात्मा के रूप में मान्यता दिलाने के लिए “वनवासी कल्याण आश्रम ” ने संघर्ष किया और १९३० तथा १९३२ के सरकारी रेकॉर्ड्स भी प्रमाण स्वरूप दिए। उसके प्रयासों से नाग्या कातकरी की प्रतिमा भी बनी और उनका नाम विजय स्तम्भ में भी शामिल किया जा सका।