भारत की श्रेष्ठ संत परम्परा मलिका के शिरोमणि…संत रविदासजी
श्रेष्ठ संत परम्परा की भारत को देन
- ईश्वर उपासना, भक्तिभाव का जागरण, कर्मकांड का विरोध किया है.
- उनके प्रयासों से सामाजिक समरसता का निर्माण हुआ है
- जातिगत भेदभाव उन्मूलन के लिए उन्होने कार्य किये हैं.
- सामाजिक कुरीतियों का निवारण हेतु जनजागरण हुआ हैं.
- विदेशी शासन के अत्याचारों के विरुद्ध समाज को खड़ा किया, संबल प्रदान किया.
- संतो ने सम्पूर्ण भारत को अपना कार्यक्षेत्र बनाया था. इसीलिए उनके बारे में सारे देश में सामान आस्था दिखती है.
- कहते हैं जात न पूछो साध की. क्योंकि संतों ने प्रत्येक जाति का प्रतिनिधित्व किया है
संत रविदास(sant ravidas) जी का प्रेरक जीवन –
- मृदु –स्वभाव, महान – विचार, आत्मानुभव, आत्मविश्वास और आत्मसम्मान के कारण उनके अंदर एक ऐसी प्रतिभा जाग्रत हो चुकी थी कि जो भी उनके संपर्क में आता था मंत्र – मुग्ध हो जाता था
- वे सीधा – जीवन व्यतीत करते थे हाथ का कमाया खाना, थोडे में संतुष्ट रहना, सुख – दुःख में मन:स्थिति को समान रखना आदि उनके स्वभाव के अंग बन चुके थे |
- सच्ची कमाई और सदाचार के साथ उपार्जित धन में से साधु – संतो की सेवा करना और दीनहीन से प्रेम उनकी स्वाभाविक वृत्तियां थीं. वे गृहस्थ रहते हुए भी संसार से निर्लिप्त रहते थे जल के कमल की भांति उनका स्वभाव था .
- संत – स्वभाव के अनुरूप उन्होंने अपने से पहले आने वाले और समकालीन सभी सन्तों के प्रति सदभावना प्रकट की है क्योंकि वैष्णव – संप्रदाय में संत और वैष्णवजन की सेवा भगवान के बराबर मानी गई है| बचपन से ही उनकी साधु – सेवा की ओर प्रवृत्ति थी
- संत रविदास का व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि उच्च वर्ण और द्विज जाति के विद्वान लोग भी उनका सत्कार करने लगे थे | दृढं संकल्प, भगवान में अटूट भक्ति और विश्वास के कारण उनमें हीन – भावना लेश मात्र भी नहीं थी | वह बेधड़क अपना पैतृक काम करते और बेधड़क ही भजन – कीर्तन करते थे
- उन्होंने लोकभाषा को माध्यम बनाया था और उनकी भाषा सरल और लोक ग्राह्य थी| उन्होंने गूढ़ से भावों को भी बड़ी सहज और सरल रीति से पेश किया था|
- कवि होने के साथ – साथ रविदास जी क्रांतिकारी और मौलिक विचारक भी थे| उन्होंने लोक में जो कुछ परंपरागत प्रचलित देखा उसको सत्य की कसौटी पर परिमार्जित किया जो उन्हें ठीक लगा उसका उन्होंने निर्भय होकर प्रचार किया
- रविदास स्वभावत: मानवतावादी थे| इसलिए भक्ति के द्वारा प्रज्ञा और चेतना की पूर्ण अधिकारिता के प्राप्त होने के पश्चात भी समाज की दीनहीन – अवस्था, दुर्दशा और भेद – भाव उनकी आंखों से ओझल नहीं हो सके थे|
- वे प्रभु – परायण, जातियता के कट्टर विरोधी, मानव समानता के कट्टर समर्थक, सर्वहितकारी, स्वतंत्र चिंतक और उदार संत थे|
- संत रविदास मूलत: भक्त थे – कवि या साहित्यकार नहीं थे उनका उद्देश्य साहित्य सृजन नहीं था उनकी रचनाएं तो उनकी प्रेमानुभूति और रहस्यानुभूति की सहज अभिव्यक्ति थीं|
- रविदास जी एक अत्यंत विनीत, राग– द्वेष रहित, खंडन – मंडन प्रवृत्ति से विहीन, उच्च कोटि के संत, विचारक और कवि थे| उनकी वाणी सरल और सुबोध होती हुई भी क्रन्तिकारी विचारों और उत्कट भक्ति – भावना से पूर्ण थी
संत समाज ने संत रविदास के में अपने विचार प्रकट किए हैं –
निवृत्ति ज्ञानदेव सोपान चांगाजी, मेरे जो के है जी नामदेव
नागाजन मित्र नरहरि सुनार, रविदास कबीर सगे मेरे | – तुकाराम
- आचार्य पृथ्वी सिंह आजाद के अनुसार संत रविदास जी की भेंटवार्ता गुरुनानक जी से बनारस में हुई थी | कुछ विद्वान यह भेंट – वार्ता अयोध्या में मानते है |
- संत कबीर ने भी ‘संतन में रविदास संत हैं’ कहकर इनके प्रति श्रद्धा प्रकट की है।
- गुरु ग्रंथ साहब में रविदास की प्रशंसा लिखी गई है, परंतु वह गुरु नानक द्वारा न होकर गुरु रामदास और गुरु अर्जुन द्वारा रचित है |
रविदास चमारू उस्तति करै हरि की रीति निमिख इक गाई
पतित जाति उत्तम भया,चारि बरन पए पगि आई
रविदास ध्याय प्रभु अनूप, गुरुदेव “नानक” गोबिंद रूप |
सोर्स : पुस्तक – संत रविदास , लेखक – इन्द्रराज सिंह
स्वामी रामानन्द के शिष्य–
पंचगंगा घाट के प्रसिद्ध संत स्वामी रामानन्द(swami ramnand) का शिष्य बनने की इच्छा भक्त रैदास के मन में जागी तो स्वामी रामानन्द ने इसे तुरन्त स्वीकार कर लिया। भक्त रैदास ने कहा हम चमार हैं तो स्वामी रामानन्द ने कहा – ‘प्रभु के यहाँ कोई छोटा-बड़ा नहीं होता।’ स्वामी रामानन्द ने रैदास को प्रभुराम की भक्ति करने तथा भजन लिखने का आग्रह किया। भक्तिभाव से पद लिखना, भक्तों के मध्य गाना, किन्तु जूते बनाने का अपना व्यवसाय भी करते रहना, यही उनकी दिनचर्या हो गयी।
जातिभेद मिथ्या है–
भक्त रैदास कहते हैं कि सभी का प्रभु एक है तो यह जातिभेद जन्म से क्यों आ गया? यह मिथ्या है :-
जांति एक जामें एकहि चिन्हा, देह अवयव कोई नहीं भिन्ना।
कर्म प्रधान ऋषि-मुनि गावें, यथा कर्म फल तैसहि पावें।
जीव कै जाति बरन कुल नाहीं, जाति भेद है जग मूरखाईं।
नीति-स्मृति-शास्त्र सब गावें, जाति भेद शठ मूढ़ बतावें।
(हमारे साधु संत, भाग-1, पृ. 17)
अर्थात् ‘जीव की कोई जाति नहीं होती, न वर्ण, न कुल । ऋषि-मुनियों ने वर्ण को कर्म प्रधान बताया है, हमारे शास्त्र भी यही कहते हैं। जाति भेद की बात, मूढ़ और शठ करते हैं। वास्तव में सबकी जाति एक ही है।’ संत रविदास कहते हैं कि संतों के मन में तो सभी के हित की बात ही रहती है।
वे सभी के अन्दर एक ही ईश्वर के दर्शन करते हैं तथा जाति-पाँति का विचार नहीं करते:
संतन के मन होत है, सब के हित की बात।
घट-घट देखें अलख को, पूछे जात न पात ।।
(संत रविदास, पृ. 119)
संत रैदास ने जातिगत भेदभाव की व्यवस्था को अपनी वाणियों में ही सहज ढंग से व्यक्त किया और लोगों को समझाया कि जन्मना कोई श्रेष्ठ या नीच नहीं होता । ओछे (छोटे) कर्म ही व्यक्ति को नीच बनाते हैं :
रविदास जन्म के कारनै, होत न कोऊ नीच।
नर को नीच करि डारि है, ओछे करम की कीच॥
(हिन्दी संत काव्य : समाज शास्त्रीय अध्ययन, पृ. 264)
उनके विचार से जन्मना कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र नहीं है। ऊँची जाति का व्यक्ति वही है, जिसके कर्म अच्छे हैं :
ब्राह्मन् खत्तरी वैस सूद, रविदास जनम ते नाहिं।
जौ चाहइ सुबरन कउ, पावइ करमन माहिं।
(वही, पृ. 264)
संत रैदास को मुसलमान बनाने के प्रयास–
संत रैदास को मुसलमान बनाने से उनके लाखों भक्त भी मुसलमान बन जायेंगे ऐसा सोचकर धर्मपरिवर्तन के लिए उन पर अनेक प्रकार के दबाव आये, किन्तु संत रैदास की श्रद्धा और निष्ठा को हम अटूट पाते हैं। सदना पीर इनको मुसलमान बनाने आया था. किन्तु इनकी ईश्वर-भक्ति और आध्यत्मिक-साधना से प्रभावित होकर सदना पीर हिन्दू होकर रामदास नाम से उनका शिष्य बन गया। एक ओर तो वे जातिगत भेद, ढोंग, कर्मकांड आदि के विरोध में संघर्ष करते हैं, किन्तु वैदिक धर्म के दार्शनिक पक्ष में अपनी पूर्ण आस्था बराबर रखते हैं।
सिकन्दर लोदी उनको मुसलमान बनाने के लिए प्रलोभन तथा दवाब दोनों की नीति अपनाता है , लोगों को उनके पास भेजता है , किन्तु उनका उत्तर सीधा-सपाट है | वे बार -बार हिन्दू धर्म में अपनी श्रद्धा , निष्ठा तथा आस्था व्यक्त करते है| उनकी दृष्टि तथा सोच स्पष्ट है :
वेद वाक्य उत्तम धरम, निर्मल वाका ज्ञान।
यह सच्चा मत छोड़कर, मैं क्यों पहूं कुरान।
स्रुति-सास्त्र-स्मृति गाई, प्राण जाय पर धरम न जाई।
कुरान बहिश्त न चाहिए, मुझको हूर हजार।
वेद धरम त्यागूं नहीं, जो गल चलै कटार।
वेद धरम है पूरण धरमा, करि कल्याण मिटावे भरमा।
सत्य सनातन वेद हैं, ज्ञान धर्म मर्याद।
जो ना जाने वेद को, वृथा करे बकवाद।
(हमारे साधु संत, भाग- 1, पृ. 22-23)
धर्मपरिवर्तन से इन्कार करने पर सिकन्दर लोदी ने संत रैदास को कठोर दण्ड देने की धमकी दी तो उन्होंने निर्भीकता के साथ उत्तर दिया :
मैं नहिं दब्बू बाल गँवारा, गंग त्याग गहूँ ताल किनारा।
प्राण तंजू पर धर्म न देऊँ, तुमसे शाह सत्य कह देऊँ।
चोटी शिखा कबहुँ नहिं त्यागँ, वस्त्र समेत देह भल त्यागँ।
कंठ कृपाण का करौ प्रहारा, चाहें डुबावो सिन्धु मंझारा॥
(वही, पृ. 23)
भक्ति रस की निर्मल गंगा –
मुस्लिम आतंक के उस कठिन काल में भी संत रैदास ने सच्ची भक्ति की निर्मल गंगा प्रवाहित कर दी। उन्होंने सैकड़ों भक्ति पदों की रचना की और उन पदों को भाव विभोर होकर वे गाते थे। वे अपने इष्ट को गोविन्द, केसव, राम, कान्हा, बनवारी, कृष्ण-मुरारी, दीनदयाल, नरहरि, गोपाल, माधो आदि विविध नामों से सम्बोधित करते हैं, किन्तु उनका ईश्वर मन्दिर में मूर्ति की तरह विराजित भगवान् से भिन्न है| वह तो घट-घट वासी निराकार ब्रह्म की सुन्दर प्रतीति है।
भक्त-रैदास कहते हैं कि राम के बिना इस जंजाल से मुक्ति कठिन है :
राम बिन संसै गांठिन छुटै।।
काम क्रोध मद मोह माया, इन पंचनि मिलि लुटे।
(वही, पृ. 50)
भक्त रैदास परमहंस की निस्पृह स्थिति में पहुँच गए। वे कहते हैं कि मैंने संसार के सब रिश्ते-नाते तोड़ दिये हैं, अब तो केवल प्रभुचरणों का ही सहारा है:
मैं हरि प्रीति सबनि सौं तोरी,
सब सौं तोरी तुम्हें संग जोरी।
सब परिहरि मैं तुमहीं आसा, मन बचन क्रम कहै रैदासा।।
(वही, पृ. 51)
भक्त रैदास के अभीष्ट राम हैं, सर्वव्यापी राम । उसी भक्ति के सहारे वे जीवन के सारे कार्य कर रहे हैं। उनके सभी कार्य राम को समर्पित हैं । उनका अपना कुछ भी नहीं, जो भी कुछ है वह राम का ही है:
राम नाम धन पायौ तार्थे , सहज करूँ व्यौहार रे।
राम नाम हम लादयौ ताथै, विष लाद्यौ संसार रे॥
(वही, प.79)
पूजा का नहीं, पूजा के ढोंग का विरोध –
पूजा के कर्मकाण्ड पर उनको कोई विश्वास नहीं। भक्त रैदास कहते हैं, किससे पूजा करूँ? नदी का जल मछलियों ने गन्दा कर दिया है, फूल को भौरे ने जूठा कर दिया है, गाय के दूध को बछड़े ने जूठा किया है, अतः मैं हृदय से ही पूजा कर रहा हूँ। उन्होंने पूजा का नहीं वरन् पूजा के नाम पर हो रहे ढोंग का विरोध किया। समाज में ऊँच-नीच का भाव भरा पड़ा था ।
कर्म की पूजा –
भक्त रैदास जानते हैं कि उनका जन्म ऐसी जाति में हुआ है जिसकी समाज में प्रतिष्ठा नहीं है और इस बात को वे निर्भीकता से स्वीकार भी करते हैं। इस प्रकार, अपनी सम्पूर्ण जाति को जातिगत संकोच से निकालते हैं और सभी को राम की शरण की ओर ले चलते हैं । चमड़े के काम को अन्य लोग तो ओछा बतलाते हैं, किन्तु रविदास ने प्रभु के सम्मुख विनम्रता से सब कुछ कहकर इस कार्य को मान दिया है :
मेरी जाति कमीनी पांति कमीनी ओछा जनमु हमारा॥
तुम सरनागति राजा रामचंद कहि रविदास चमारा ॥
(श्री गुरुग्रन्थ साहिब, पृ. 659)
अर्थात् ‘मेरी तो जाति और गोत्र बहुत नीचा है और मेरा जन्म भी बहुत हो ओछा है; पर चमड़े का काम करने वाले रविदास का कथन है कि हे प्रभु ! मैं तो अब तम्हारी शरण में आन पड़ा हूँ।’
भक्ति से ही तो प्रभु हैं –
भक्ति वह मार्ग है जो धीरे-धीरे साधक को प्रभु से जोडता है और भक्त का अधिकार अपने प्रभु पर बढ़ता चलता है। भक्ति की पराकाष्ठा देखिये कि रैदास कह उठते है कि भगवान् आपकी सार्थकता के लिए हम आवश्यक हैं । भक्ति से परिपूर्ण रैदास अधिकार पूर्वक अपने प्रभु से जुड़े हुए हैं और कहते हैं :
अब कैसे छूटे राम रट लागी।
प्रभुजी तुम चन्दन हम पानी।
जाकी अंग-अंग बास समानी
प्रभुजी तुम घन वन हम मोरा। जैसे चितवत चंद चकोरा
प्रभुजी तुम मोती हम धागा। जैसे सोनहिं मिलत सोहागा।
प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा। ऐसी भक्ति करै रैदासा॥
(बूंद मिले सागर में, पृ. 24)
अर्थात् ‘राम नाम की जो रट लगी है वह कैसे और क्यों छूटेगी. यह निरंतरता कैसे टूटेगी, जब ध्यान है कि हम प्रभु की सार्थकता के लिए सार्थक हैं। प्रभुजी आप चन्दन हैं तो हम पानी हैं, हम आपके साथ मिलकर घिसेंगे। तभी तो आपकी सुगन्ध सभी ओर फैलेगी। आप जल भरे मेघ हैं तो हम मोर हैं. हमारे नृत्य करने से ही तो आपकी शोभा होती है। आप चन्द्रमा हैं तो हम चकोर पक्षी हैं। चकोर की आँखें ही चन्द्रमा की शीतलता का अनुभव करती हैं। प्रभुजी आप दीपक हैं तो हम उसकी बाती हैं, बाती के बिना कैसे प्रकाश मड़ देगा दीपक? आप मोती हैं तो हम धागा हैं किन्तु बिना धागा प्रभु के गले का हार कैसे बनेगा? आप स्वर्ण हैं तो हम सुहागा हैं। हमारे बिना सोना चमकेगा कैसे? प्रभुजी आप स्वामी हैं और हम दास हैं । रैदास ने ऐसी भक्ति करी है कि अब वह प्रभु के साथ एकरूप हो गया है।’ यद्यपि पानी, बाती, धागा, सुहागा आदि मूल्यहीन हैं, किन्तु इनके बिना चन्दन, दीपक, मोती, स्वर्ण आदि अपना अस्तित्व नहीं बना पाते ।
संत रैदास प्रभु के साथ घुल-मिल गए, एकाकार हो गए। भक्त रैदास ने ऐसा सम्बन्ध जोड़ा है कि प्रभु को यदि प्रभु बनना है तो भक्त रैदास साथ रहेगा, एक क्षण को भी रैदास प्रभु को छोड़ना नहीं चाहते । भक्त रैदास प्रभु को कहते हैं कि मैं तुमको अब नहीं छोड़ेंगा और अब आप भी मुझसे दूर नहीं जा सकते। एक पद में वे गाते हैं :
जो हम बाँधे मोह फाँस हम प्रेम बंधनि तुम बांधे।
पने छूटन को जतन करह हम छूटे तुम आराधे॥
(संत और सूफी साहित्य, पृ. 122)
अर्थात ‘हे माधव! यदि तुमने मुझे संसार के मोह में बाँध रखा है तो मैंने भी अपने प्रेम से बाँध रखा है। मैं तो तुम्हारी आराधना करके बंधन मक्त हो गया हूँ (मेरा भवपाश अवश्य कटेगा), अब प्रभु आप अपने छूटने का उपाय से आप कैसे छूटोगे?
भक्त रैदास ने अपने जीवन में यह सिद्ध कर दिया कि त्याग, समर्पण और भगवद्भक्ति से व्यक्ति ऊँचा उठता चलता है और फिर उसकी जाति महत्वहीन हो जाती है।
काशी नरेश, झाली रानी तथा मीरा के गुरु भक्त रैदास–
भक्त रैदास का भक्तिभाव देखकर काशी नरेश उनके शिष्य बन गए। चित्तौड़ के महाराणा उदय सिंह की पत्नी झाली रानी संत रैदास की शिष्या हो गयीं। कुछ इतिहासकार उस झाली रानी को राणा कुम्भा की माँ तथा कोई उसको राणा सांगा की धर्मपत्नी समझते हैं। संत नाभादास ने भक्तमाल में इसका वर्णन किया है:
बसत चित्तौर माँझ रानी एक झाली नाम ,
नाम बिन काम खालि आनि शिष्य भई है॥ (संत रैदास, पृ. 23)
देशभर में प्रतिष्ठा प्राप्त, ऐश्वर्य, शक्ति-सम्पन्न चित्तौड़ की कुलवधू मीरा ने भी भक्त रैदास को ही अपना गुरु स्वीकार किया। कृष्णभक्ति में आकंठ डूबी मीरा अनेक प्रकार का विरोध सहन करती हुई भक्त रैदास की शरण में आ गयीं। उन्हीं से मीरा ने आशीर्वाद पाया और भक्ति में लीन हो गईं। मीरा और भक्त रैदास का मिलन सगुण और निर्गुण भक्ति-धाराओं का मिलन तो है ही, साथ ही साथ जातिगत आधार पर भेद मानने वालों को एक सुन्दर अनुकरणीय सीख भी है।
चितौड़ के राणा द्वारा भक्त–रैदास का सम्मान–
भक्त रैदास की ख्याति दूर-दूर तक फैल रही थी तभी चित्तौड़ के मन्दिर में प्राण-प्रतिष्ठा के लिए राणा ने भक्त रैदास को बुलाया। अनेक ब्राह्मणों द्वारा विरोध करने के बावजूद राणा ने भक्त रैदास का सम्मान किया, पादपूजा की। भक्त रैदास के सम्बन्ध में हरिराम व्यास ने अपनी व्यासवाणी में लिखा है :
एक भक्त रैदास पर वारों बाह्यन कोटि। (वही, पृ. 32)
भक्त रैदास स्वयं अनेक स्थानों पर इस बात का उल्लेख करते हैं कि हमारे घर-परिवार के लोग तो अभी भी बनारस (वाराणसी) के आसपास मरे हुए जानवर उठाने का कार्य करते हैं, श्री गुरु ग्रन्थसाहिब’ में भक्त रैदास का पद देखिए:
जाकै कुटंब सब ढोर डोवत फिरहिं अजुहँ बनारसी आसपासा |
आचार सहित विप्र करहिं डंडउति तिन तनै रविदासन दासा||
भक्त रैदास को सम्पूर्ण देश में सम्मान मिला तथा उनके चालीस पदों ने ‘श्री गुरु ग्रन्थसाहिब’ में प्रतिष्ठा प्राप्त की। भक्त रैदास के साथ पूरी चर्म जाति भी प्रतिष्ठित हुई। ‘रैदास’ नाम एक उपाधि की तरह बन गया। हजारों सवर्ण कहे जाने वाले लोग संत रैदास के भक्त हो गए। हिन्दू समाज के अन्दर एक जाति खड़ीं हो गयी। जिसने अपने आप को रैदासी कहने में गौरव की अनुभूति की|
प्रसिद्ध लेखक जीलियट (Zelliot) और रोहिणी पुनेकर (Rohini Punekar) संत रविदास के राष्ट्रीय तथा अन्तराष्ट्रीय महत्व को स्वीकार करते हैं । पण्ढरपुर में संत रविदास की डिण्डी यात्रा का वर्णन उन्होंने किया हैः
“Ravidas is not only important in the north, but he is also celebrated as their saint by the Chambhars or Charmakars of Maharashtra as Rohidas. A dindi’ to Rohidas is part of the great palkhi’ procession that leaves Alandi for Pandharpur for the pilgrimage to the God Vithoba. …….. The position of the Rohidas dindi as the first, very end of the palkhi procession, does not dim the enthusiasm of the Charmakars for the pilgrimage. Some eight hundred ‘bhakats’ walk the many miles from Alandi to Pandharpur with the padukas (sandals) of Rohidas. It is reported that women dance in the ‘dindi’ procession, a most unusual happening.” (Untouchable Saints, Page-40)
जीलियट और पुनेकर का उपयुक्त कथन रैदास के प्रति देशभर में व्याप्त श्रद्धा का प्रतीक माना जा सकता है|
जाति से कोई ऊँचे पद पर नहीं पहुँचा–
भक्त रैदास ने ही कहा था, ‘जाति से कोई ऊँचे पद पर नहीं पहुँचा।’
यह शाश्वत सत्य है कि अपनी जाति के कारण किसी व्यक्ति ने इतिहास में अपना स्थान नहीं बनाया। स्वामी रामानन्द ने धन्ना (जाट), सेना (नाई), रैदास (चर्मकार), कबीर (जुलाहा) को शिष्य क्यों बनाया? मेवाड़ के राणा परिवार की वैभव सम्पन्न कुलवधू मीरा, काशी नरेश तथा झाली रानी ने संत रैदास को क्यों अपना गुरु बनाया? व्यक्ति को बड़ा बनाने का कार्य उसकी ईश्वर-भक्ति, विद्या, कर्मठता, चरित्र, श्रद्धा, उदारता, कर्तव्यपरायणता तथा मानवीय पहलू ही करते हैं, उसकी जाति नहीं। इसीलिए भक्त रैदास ने कहा है- जाति से कोई पद नहीं पहुंचा।
लेखक –डॉ कृष्ण गोपाल
संदर्भ पुस्तक –भारत की संत परम्परा और सामाजिक समरसता ;