1857 क्रांति के दिनों में सम्पूर्ण मालवा-निमाड़ में क्रांतिकारियों का जाल फैला था। खरगौन और उसके आसपास का क्षेत्र क्रांतिकारियों का प्रमुख केन्द्र था। वनवासी क्रांतिकारियों की श्रृंखलाबद्ध व्यवस्था अद्भुत थी। एक नायक के बलिदान होते ही दूसरा नायक मोर्चा थाम लेता थाता कि क्रांति अनवरत चलती रहे। इसी कड़ी में एक थे टंट्या मामा।
जननायक टंट्या मामा व्यक्ति नहीं एक विचारधारा हैं। अपनी वीरता और अदम्य साहस से शोषण के विरुद्ध बुलंद आवाज का नाम ही टंट्या मामा भील है। अपने विद्रोही तेवर और बिजली की तरह तेजतर्रार कदकाठी से मामा ने कई बार अंग्रेजों को धुल चटाई। इतिहासकारों की बेरुखी और उदासीनता टंट्या मामा के साथ उतना न्याय नहीं करपाई जिसके वो हकदार थे। आज भी उनका इतिहास फर्श पर बिखरे मोती की तरह है जिन्हें समेट कर कोई माला बनाने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। खैर अब तक टंट्îा मामा अपने अदम्य साहस के बूते देशवासियों के दिलों पर अंकित हो गए थे, जो कि किसी कलम की स्याही के मोहताज नहीं थे !
वर्ष 1842 में मध्यप्रदेश के खण्डवा जिले के पन्धाना प्रखण्ड के बड़ोदा गाँव में भाऊसिंह के घर एक पुत्र का जन्म हुआ। ज्वार का पौधा सुखने के बाद उसे टंट्या कहते हैं। ये बालक वैसा ही था। इसलिए उसे सब टंट्या कह कर पुकारते थे। वही उसका नाम बन गया। भील परिवार का यह बालक बचपन से ही तीर-कमान चलाने में प्रवीण था। युवकों में नायक, व्यवहारकुशल और विनम्र टंट्या समुदाय में अत्यंत लोकप्रिय था।
कागजी बाई से विवाह होने के पश्चात वह घर की कृषि करता था। परन्तु एक के बाद एक संकट आते गए। अकाल के कारण फसल नहीं हुई, पिता की मृत्यु हुई और मालगुज़ार ने चार वष तक कर की राशि न देने के कारण जम़ीन छीन ली। पुरानी एक जम़ीन के बारे में कोर्ट में केस हुई तो उसके लिए बडोदा गांव का मकान और बैलगाड़ी बेच दी। परन्तु खण्डवा में चल रहे कोर्ट केेस में सफलता न मिली।
समाज में चल रहे अत्याचारों के विरूद्ध मन में आग तो थी ही। एक गाँव से दूसरे गाँव घूमते-घूमते जनजाति युवकों की एक ऐसी सेना बनाई जो साहुकारों-जम़ीनदारों को लूटकर अन्याय का सामना करती थी। मानो !, टंट्या ने सामंतशाही के विरूद्ध अभियान छेड़ा। लूट से जो कुछ मिले उसे गरीबों के बीच वे बाँट देते थे। संकट की बेला में भील परिवार उन्हें पुकारते और वे हवा की तरह पहुंच जाते। कोई भी व्यक्ति हो उसे मदद कर अगले मोर्चे पर चल देते। समाज के सुख-दुःख में साथ रहने के कारण उनके प्रति अपार आदर देखने को मिला। एक प्रकार से समाज के गरीबों के वे जननायक बन गए। यही नहीं वन में शरण लिए आये सैंकड़ों स्वतंत्रता सेनानियों के भी वे आश्रयदाता थे।
नर्मदा किनारे मध्य प्रदेश और गुजरात की पट्टी का शेर को पकड़ना आसान न था। टंट्या जानते थे की ये जम़ीनदार-साहुकार सब अंग्रेजों के पिठ्ठू है। उसने अब अंग्रेजों के सामने संघर्ष प्रारम्भ किया। एक बार अंग्रेजों ने उसे पकड़ कर खण्डवा की जेल में बंदी बना दिया। परन्तु उन्हें जेल में रहना पसंद नहीं था। साहसी टंट्या जेल की दिवार लांघ कर भाग गए। उनके साहस का परिचय देने वाली कई घटनाएं है।
एक बार एक पुलिस अधिकारी गांव में उसे पकडने हेतु आएं। टंट्या को पकडने पर उसे पुरस्कार मिलने वाला था। टंट्या का साहस देखो, वे समय पुलिस थाने पहुंच गए और पुलिस को कहते हैं कि आपको टंट्या चाहिए न !, चलो मेरे साथ टंट्या अभी जंगल में एक पेड़ के नीचे विश्राम कर रहा है। पुलिस अधिकारी खुश हो गया। वह टंट्या के पीछे पीछे जंगल की ओर चल पड़ा। थोड़ी दूर जाने पर एकांत में टंट्या ने कहा कि आपको टंट्या चाहिए न, मैं स्वयं टंट्या हुँ, पकड़ो मुझे। उसका वह रौद्र रूप देख कर पुलिस अधिकारी पकड़ना तो दूर वास्तव में भय से कांप उठा। टंट्या ने उसके कपडे़ उतार लिए। दिन ढलने पर अंधेरे में अपनी लाज बचाते वह अर्धनग्न पुलिस अधिकारी गांव की ओर भाग निकला और फिर दुबारा कभी मामा को पकड़ने नहीं आया। उसे जिंदा छोड़कर मामा ने अंग्रेजों को अपने वास्तव रूप का संदेश ही भेजा।
15 सितम्बर 1857 को उनका भेंट क्रांति के महानायक तात्या टोपे से हुई। टंट्या ने तात्या टोपे से गुरिल्ला युद्ध का प्रशिक्षण प्राप्त किया। अतः अंग्रेज इन से बहुत काँपते थे। उसने अंग्रेजों के विरुद्ध उस अग्नि को और प्रज्वलित किया जो वनांचलों और पर्वतों की तलहटियों में बसे टोलों में उसके जन्म से भी पहले नादिर सिंह, चील नायक, सरदार दशरथ, हिरिया, गौंडाजी, दंगलिया, शिवराम पेंडिया, सुतवा, उचेत सिंह, करजर सिंह आदि नायकों ने सुलगाई थी। उसे पकड़ने के लिए अंग्रेजों ने पुरस्कार घोषित किया था। एक विशेष बात यानि टंट्या को उलटे पाँव चलने की कला अवगत थी। इसके कारण अंग्रेज सेना जब पाँव के निशाने के आधार पर पकड़ने के प्रयास करती तो वह उलटी दिशा में पाया जाता। कई लोग तो उसे दिव्य शक्ति प्राप्त है ऐसा मानते थे।
आज प्रदेश के विभिन्न स्थानों पर जननायक टंट्या मामा भील को एक भगवान की तरह पूजा जाता हैं। काल के प्रवाह में धुंधला चुकी उन स्मृतियों को भी उकेरा जाना समय की आवश्यकता है, जो सम्पूर्ण भारत के लिए प्रेरणा है। मामा के जीवन से जुड़े कुछ अनकहे अनछुए पहलुओं को सभी के समक्ष रखा जाना चाहिए कि कैसे मामा ने जनजातियों को संगठित कर शोषण के विरुद्ध आवाज को बुलंद किया। 15 सितम्बर 1857 को उनकी क्रांति के महानायक तात्या टोपे से भेंट हुई थी।
विदेशी इतिहासकार कहते है कि टंट्या मामा रॉबिन हुड थे परन्तु सच यह है कि रॉबिन हुड टंट्या मामा थे। टंट्या मामा अपने आप में अलंकरण हैं। इस पराक्रमी जनजाति योद्धा ने जीवन भर गरीब बालिकाओं का निःशुल्क विवाह कराए, उसके चलते वे सबके ‘मामा’ बन कर उभरे। यही कारण है कि आज भी भील समाज अपने आपको ‘मामा’ कहलवाना पसंद करता है।
अंग्रेजों ने षड्यंत्र की रचना कर उसे पकड़ कर इंदौर लाया और फिर डर के मारे जबलपुर जेल में ले गए। कहते है की 4 दिसम्बर, 1889 में वहाँ उसे फांसी दी गई और पाताल पानी के पास रेल की पटरियों पर उसे फेंक दिया गया। आज भी वहाँ एक स्मारक है जो उसकी वीर गाथा कह रहा है।
मामा भले ही अंग्रेजो की अन्यायपूर्ण व्यवस्था का शिकार हुए लेकिन वो वास्तव में जनजाति समाज के सीने में धड़क रहे है। समय कहता है कि जनजाति समाज को हम जागरुक करे ताकि वो टंट्या मामा की तरह अपने हक और अधिकारों की लड़ाई लड़ सकें।