आद्यक्रांतिकारी राघोजी भांगरे
महाराष्ट्र के पश्चिम क्षेत्र में 1780 के दशक में पहली बार युद्ध भेरी ने गंभीर निनाद किया। इसे महादेव कोळी जनजाति ने निर्भयता के साथ किया। पहली बार ऐसा 1784-85 में और फिर 1803 में किया। पूना तथा आसपास के जिलों में राघोजी भांगरे का शस्त्र संघर्ष बहुत प्रसिद्ध है और लगभग दो दशकों तक चला।
राघोजी भांगरे का जन्म 1805 में हुआ। पिता पेशवा के किलेदार थे, परन्तु अंग्रेजों का अधिकार स्थापित होने पर गुलामी के पद से छुट्टी स्वंय ले ली। उनके पुत्र ने अंग्रेजों के द्वारा होने वाले शोषण, अत्याचार आदि को देखा, समझा। किशोर वनवासी युवा भांगरे यह सहन ने न कर सका। वह 1825-26 से सक्रिय होकर ग्रामों में जाकर जनजागृति के कार्य में लग गया। आगे उसने जुन्नर के निकट जंगल-पहाड़ों में एक सभा का आयोजन किया। उनकी सशस्त्र प्रतिकार की योजनाओं को समर्थन मिला।
उन्होने तैयारी करके 1828 से अपनी टुकड़ियों को लेकर अंदोलन का श्रीगणेश किया। ग्राम-ग्राम में फलकों पर लिखते कि राष्ट्र के शोषक, उत्पीडक और स्वातंत्र्य का अपहरण करने वाली अंग्रेजों की सरकार को भूमिकर आदि को देना बन्द कर दें और हमारे स्वातंत्र्य हेतु चलने वाले आंदोलनों के पोषण हेतु आर्थिक सहयोग दें। अब ग्रामीणों ने कर देना बन्द किया। भांगरे को धन मिलने लगा। फिर अंग्रेजों के दलालों, पिठ्ठुओं, सूदखोरों आदि को लूटना भी प्रारंभ कर दिया। अंग्रेजों का शासन मानो हिलने लगा। यहाँ यह भी याद रखना होगा कि ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य और किसानों का पूरा सहयोग राघोजी भांगरे को मिलने लगा। उनके विश्वासू साथियों में ब्राम्हण, क्षत्रियादि भी थे । कोंकण, नासिक, ठाणे, नगर आदि जिलों में भी यह आंदोलन दावा नलके समान फैलने लगा। अंग्रेजों ने भी इन प्रयासों को समाप्त करने के लिए प्रयत्न प्रारंभ कर ही दिया था। कई बार सशस्त्र संघर्ष हुये । अंग्रेजों को भागना ही पड़ा। अत: कर्नल मेकिंगटोश को सेना की टुकड़ियों के प्रमुख बनाकर विशेष प्रयास प्रारंभ किये। परन्तु जनता का राघोजी को पूरा सहयोग प्राप्त था क्योंकि वह कर विशेष प्रयास प्रारंभ किये। परन्तु जनता का राघोजी को पूरा सहयोग प्राप्त था क्योंकि वह सच्चरित्र, वीर, देश की स्वतंत्रता को प्राप्त करने के लिए सर्वस्व-त्यागी और जनहितैषी था और दुष्टों को दंड देने वाला भी था। वह हर वर्ष पंढरपुर की यात्रा में वेश बदल कर जाते ही थे। अंग्रेजों ने उन दिनों में राघोजी को कर विशेष प्रयास प्रारंभ किये। परन्तु जनता का राघोजी को पूरा सहयोग प्राप्त था क्योंकि वह
सच्चरित्र, वीर, देश की स्वतंत्रता को प्राप्त करने के लिए सर्वस्व-त्यागी और जनहितैषी था और दुष्टों को दंड देने वाला भी था। वह हर वर्ष पंढरपुर की यात्रा में वेश बदल कर जाते ही थे। अंग्रेजों ने उन दिनों में राघोजी को पकड़ने या मारने वाले को पाँच हजार रूपये का पुरस्कार देने की घोषणा भी की थी। आखिर घात हुआ और किसी से समाचार आदि पाकर १८४८ में पंढरपुर की यात्रा में राघोजी पकड़े गये और न्यायदान का संक्षिप्त करके उसी वर्ष फांसी पर चढ़ा दिये गये। कर्नल मेकिंटोश बाद वापस इंग्लैंड गया तो उसने राघोजी तथा उसी समय के क्रान्तिकारी उमाजी नाईक, जो पिछड़ी रामोशी जाति के थे और राघोजी को जानते भी थे, चरित्र पर पुस्तक लिखकर ब्रिटन में प्रकाशित किया था। इस पुस्तक में दोनों के शुद्ध चरित्र, वीरता, सेनापतित्व, त्याग से परिपूर्ण और सादा जीवन शोषित, पीड़ितों के प्रति करूणा व सेवा भाव तथा देशभक्ति के गुणों की प्रशंसा की है । गुजराती में एक वाक्य प्रयोग है जिसका अर्थ है वैरी भी जिसके द्वारा हुये घावों को लेकर भी प्रशंसा करे, ऐसा वीर राघोजी भांगरे था। आयें हम ऐसे वीरों का नतमस्तक हो कर पुण्य-स्मरण करें।
डॉ. प्रसन्न सप्रे
भारतीय इतिहास में जनजातियों का गौरवपूर्ण स्थान